दृग के प्रतिरूप सरोज हमारे उन्हें ज्याति जगाती जहाँ।
बल बीच कलंब-करबित कूल से दूर छटा छहराती जहाँ।
घन अंजनवर्ण खड़े तृणजाल की झाड़ें पड़ी दरसाती जहाँ।
बिखरे बक के निखरे सिन पंख विलोक बकी जाती जहाँ॥
द्रुम-अंकित, दूब-भरी, जल खंड जड़ी धरती छवि छाती जहाँ।
हर हीरक हेम-मरन प्रभा, ढल चंदकला है चढ़ाती जहाँ।
हँसती मृदु मूर्ति कलाधर की कुमुदों के कलाप खिलाती जहाँ।
घन-चित्रित अंबर अंक धरे सुषमा सरसी सरसाती जहाँ॥
निधि खोल किसानों के धूल-सने श्रम का फल भूमि बिछाती जहाँ।
चुन के, कुछ चोंच चला करके चिड़िया निज भाग बँटाती जहाँ।
कगरों पर काँस की फैली हुई धवली अबली लहराती जहाँ।
मिलि गोपों की होली कछार के बीच है गाती औ गाय चराती जहाँ॥
जनन धरणी निज अंक लिए बहु कीट पतंग खेलता जहाँ।
ममता से भरी हरी बाँह की छाँह पसार के नीड़ बसाती जहाँ।
मृदु वाणी, मनोहर वर्ण अनेक लगाकर पंख उड़ाती जहाँ।
उजली कँकरीली गली में धँसी तनु धार लटी बल खाती जहाँ॥
दलराशि उठी खरे आतप में हिल चंचल चौंध मचाती जहाँ।
उस एक हरे रँग में हलकी गहरी लहरी पड़ जाती जहाँ।
कल कर्वुरता नम की प्रतिबिंबित खंजन में मन भाती जहाँ।
कविता, वह हाथ उठाए हुए, चलिए कविवृंद! बुलाती वहाँ॥
साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।
सहयोग कीजिएरचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें