नज़्म

ताज-महल
साहिर लुधियानवी
ताज तेरे लिए इक मज़हर-ए-उल्फ़त ही सही तुझ को इस वादी-ए-रंगीं से अक़ीदत ही सही मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझ से बज़्�
कुछ इश्क़ किया कुछ काम किया
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
कुछ इश्क़ किया कुछ काम किया वो लोग बहुत ख़ुश-क़िस्मत थे जो इश्क़ को काम समझते थे या काम से आशिक़ी करते थे हम जीते-जी
याद
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
दश्त-ए-तन्हाई में ऐ जान-ए-जहाँ लर्ज़ां हैं तेरी आवाज़ के साए तिरे होंटों के सराब दश्त-ए-तन्हाई में दूरी के ख़स ओ ख़ा�
बोल
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे बोल ज़बाँ अब तक तेरी है तेरा सुत्वाँ जिस्म है तेरा बोल कि जाँ अब तक तेरी है देख कि आहन-गर की
बेबसी
वसीम बरेलवी
वक़्त के तेज़ गाम दरिया में तू किसी मौज की तरह उभरी आँखों आँखों में हो गई ओझल और मैं एक बुलबुले की तरह इसी दरिया के �
ख़्वाब नहीं देखा है
वसीम बरेलवी
मैं ने मुद्दत से कोई ख़्वाब नहीं देखा है रात खिलने का गुलाबों से महक आने का ओस की बूंदों में सूरज के समा जाने का चाँ�
खिलौना
वसीम बरेलवी
देर से एक ना-समझ बच्चा इक खिलौने के टूट जाने पर इस तरह से उदास बैठा है जैसे मय्यत क़रीब रक्खी हो और मरने के बा'द हर हर
दीवाने की जन्नत
वसीम बरेलवी
मेरा ये ख़्वाब कि तुम मेरे क़रीब आई हो अपने साए से झिझकती हुई घबराती हुई अपने एहसास की तहरीक पे शरमाती हुई अपने क़द
तेरी याद
वसीम बरेलवी
मैं तिरी याद को सीने से लगाए गुज़रा अजनबी शहर की मशग़ूल गुज़र गाहों से बेवफ़ाई की तरह फैली हुई राहों से नई तहज़ीब क
नींद
मख़दूम मुहिउद्दीन
ये किस पैकर की रंगीनी सिमट कर दिल में आती है मिरी बे-कैफ़ तंहाई को यूँ रंगीं बनाती है ये किस की जुम्बिश-ए-मिज़्गाँ र
टूटे हुए तारे
मख़दूम मुहिउद्दीन
नवा-ए-दर्द मिरी कहकशाँ में डूब गई वो चाँद तारों की सैल-ए-रवाँ में डूब गई समन-बरान-ए-फ़लक ने शरर को देख लिया ज़मीन वाल�
मौत का गीत
मख़दूम मुहिउद्दीन
अर्श की आड़ में इंसान बहुत खेल चुका ख़ून-ए-इंसान से हैवान बहुत खेल चुका मोर-ए-बे-जाँ से सुलैमान बहुत खेल चुका वक़्त �
सन्नाटा
मख़दूम मुहिउद्दीन
कोई धड़कन न कोई चाप न संचल न कोई मौज न हलचल न किसी साँस की गर्मी न बदन ऐसे सन्नाटे में इक-आध तो पत्ता खड़के कोई पिघ�
'ग़ालिब'
मख़दूम मुहिउद्दीन
तुम जो आ जाओ आज दिल्ली में ख़ुद को पाओगे अजनबी की तरह तुम फिरोगे भटकते रस्तों में एक बे-चेहरा ज़िंदगी की तरह दिन है
अपना शहर
मख़दूम मुहिउद्दीन
ये शहर अपना अजब शहर है कि रातों में सड़क पे चलिए तो सरगोशियाँ सी करता है वो ला के ज़ख़्म दिखाता है राज़-ए-दिल की तरह
अंधेरा
मख़दूम मुहिउद्दीन
रात के हाथ में इक कासा-ए-दरयुज़ा-गरी ये चमकते हुए तारे ये दमकता हुआ चाँद भीक के नूर में माँगे के उजाले में मगन यही मल
आज की रात न जा
मख़दूम मुहिउद्दीन
रात आई है बहुत रातों के ब'अद आई है देर से दूर से आई है मगर आई है मरमरीं सुब्ह के हाथों में छलकता हुआ जाम आएगा रात टूटे�
कहो जो है दिल में बात
सुनील खेड़ीवाल 'सुराज'
कहो जो है दिल में बात, उनके पयाम से पहले, मत सोचो मोहब्बत में कुछ भी अंजाम से पहले। दिल की बात दिल में न रह जाए हसरत बन�
आख़िरी रात
कैफ़ी आज़मी
चाँद टूटा पिघल गए तारे क़तरा क़तरा टपक रही है रात पलकें आँखों पे झुकती आती हैं अँखड़ियों में खटक रही है रात आज छेड�
नई सुब्ह
कैफ़ी आज़मी
ये सेहहत-बख़्श तड़का ये सहर की जल्वा-सामानी उफ़ुक़ सारा बना जाता है दामान-ए-चमन जैसे छलकती रौशनी तारीकियों पे छाई �
पशेमानी
कैफ़ी आज़मी
मैं ये सोच कर उस के दर से उठा था कि वो रोक लेगी मना लेगी मुझ को हवाओं में लहराता आता था दामन कि दामन पकड़ कर बिठा लेगी
दाएरा
कैफ़ी आज़मी
रोज़ बढ़ता हूँ जहाँ से आगे फिर वहीं लौट के आ जाता हूँ बार-हा तोड़ चुका हूँ जिन को उन्हीं दीवारों से टकराता हूँ रोज़
मकान
कैफ़ी आज़मी
आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है आज की रात न फ़ुट-पाथ पे नींद आएगी सब उठो, मैं भी उठूँ तुम भी उठो, तुम भी उठो कोई खिड़की �
एक लम्हा!
कैफ़ी आज़मी
ज़िंदगी नाम है कुछ लम्हों का और उन में भी वही इक लम्हा जिस में दो बोलती आँखें चाय की प्याली से जब उट्ठीं तो दिल में �
हमदर्द
अहमद फ़राज़
ऐ दिल उन आँखों पर न जा जिन में वफ़ूर-ए-रंज से कुछ देर को तेरे लिए आँसू अगर लहरा गए ये चंद लम्हों की चमक जो तुझ को पागल
भली सी एक शक्ल थी
अहमद फ़राज़
भले दिनों की बात है भली सी एक शक्ल थी न ये कि हुस्न-ए-ताम हो न देखने में आम सी न ये कि वो चले तो कहकशाँ सी रहगुज़र लगे �
वापसी
अहमद फ़राज़
उस ने कहा सुन अहद निभाने की ख़ातिर मत आना अहद निभाने वाले अक्सर मजबूरी या महजूरी की थकन से लौटा करते हैं तुम जाओ औ�
अंगारों को यूँ जिनके सीने में धड़कते देखा है
सुनील खेड़ीवाल 'सुराज'
अंगारों को यूँ जिनके सीने में धड़कते देखा है, मेहनत कशी से वक्त फिर उनको बदलते देखा है। ये राह आसाँ तो नहीं पर लेना �
मंज़िल पर हूँ
सुनील खेड़ीवाल 'सुराज'
मंज़िल पर हूँ, पैरो को अब और चलने की ज़रूरत ना रही, दिल में इस तरह से बसे हो कि मन्दिर में तेरी मूरत ना रही। फ़लक़, पंछी, ये �
वक़्त यूँ ज़ाया न कर
सुनील खेड़ीवाल 'सुराज'
मसर्रतों की तलाश में अपनों से ख़ुद को यूँ पराया न कर, बेशक़ गर्दिश भरा है सफ़र, तू चल वक़्त यूँ ज़ाया न कर। हाँ, मिल ही जाए�

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