गीत

ग़ैरों पे करम अपनों पे सितम
साहिर लुधियानवी
ग़ैरों पे करम अपनों पे सितम ए जान-ए-वफ़ा ये ज़ुल्म न कर रहने दे अभी थोड़ा सा भरम ए जान-ए-वफ़ा ये ज़ुल्म न कर हम चाहने
ये देश है वीर जवानों का
साहिर लुधियानवी
ये देश है वीर जवानों का अलबेलों का मस्तानों का इस देश का यारो क्या कहना ये देश है दुनिया का गहना यहाँ चौड़ी छाती व
परिणति का फल
नरेंद्र शर्मा
वर्णों की क्वणित किंकणी छंदों की छम छम छागल धारण कर, कविता मेरी, तुम नाचो कर मन पागल! अधरों पर ललित गीति बन, प्राणो�
आज
नरेंद्र शर्मा
आज परिणति पा रहे हैं जन्म जन्मांतर! यह युगांतर है, न क्षण लघु एक भयकातर! क्या न मानव-सभ्यता ही भूमिजा पावन? क्या न इस
मधुमालती
नरेंद्र शर्मा
मेरे हृदय-निकुंज की मधुमालती! किरण-कन तन पर गिराती, शारदीया चंदिरा-सी; कौन है, कर धन्य जो मधुभार मुझ पर डालती? मेरे �
कामना
नरेंद्र शर्मा
सिंधु नित अनंत उर्मिजाल डालता, छाँह ही मिली, न प्राप्य इंदु की कला! प्रेम की तृषा न प्रेम प्राप्त कर सकी, हृदय भी सदै
पत्नी के प्रति
नरेंद्र शर्मा
चीर कुहासे को सुहासिनी सुषमा-स्वर्णकिरण— आईं तुम मेरे जीवन में, तन्वी ज्योतिवरण! आईं कंपित, किंतु अशंकित धर सुकु�
जीवनशक्ति
नरेंद्र शर्मा
चिंतन-विचार, भावना-भक्त, या त्यागमयी कर्मानुरक्ति; हैं मार्ग अनेक एक मुझ तक मैं अखिल-व्याप्त जीवनीशक्ति! दो अधिक�
नारी
नरेंद्र शर्मा
संचरण हित पुरुष की इच्छा प्रबल होने लगी! देख अतिविस्तार, इच्छा— शक्ति-बल खोने लगी! प्रकृति अति-गतिप्रिय पुरुष के
मेरा मन
नरेंद्र शर्मा
मर्मरित हरित अगणित तरुओं के वन-सा मेरा मन है, जड़ जमी हुई है मिट्टी में, शिखरों पर मरकत-घन है! धरती करती रहती पोषण, सू
तुम से
नरेंद्र शर्मा
तुम से जीवन का क्षण-क्षण गुंजित, कण-कण अनुरंजित है! तुम मानस में स्वर-रूप-रंग-रस बन कर लहराई हो, अनदेखे अंतर्शतदल पर
मानव
नरेंद्र शर्मा
आनत शिर नहीं रेंगते हम पृथ्वी तल पर! क्या नहीं प्राप्त है हमें युगल युगवाही कर? उपजा नवान्न, निर्मित कर घर, अर्जित
युग की संध्या
नरेंद्र शर्मा
युग की संध्या कृषक वधू-सी किसका पंथ निहार रही? उलझी हुई समस्याओं-सी बिखरी लटें सँवार रही! धूलि धूसरित अस्त-व्यस्त
होली
नरेंद्र शर्मा
खेल रहा होली, शर भर भर तेजस का तूणीर! बेध रहा भूरज की देही सूरज अमित अधीर! प्राणशक्ति का धनुष बनाया, तेज-बीज के बान! �
राहें
नरेंद्र शर्मा
कुहरा छाया है गिरि-वन पर, गिरि-शिखरों पर; नहीं रहा आकाश आज आकाश, घिरे हैं बादल धौरे; मैं नीचे समतल पठार पर चला जा रहा�
कौन हो तुम
नरेंद्र शर्मा
कौन हो तुम, कामिनी? अचल हिम-गिरि-शिखर-सी, चंचला सौदामिनी? कौन हो तुम, कामिनी? प्रतीक्षा ऐसी कि लोचन देख पथ पथरा गए, ब�
कायर मत बन
नरेंद्र शर्मा
कुछ भी बन, बस कायर मत बन! ठोकर मार! पटक मत माथा!— तेरी राह रोकते पाहन! कुछ भी बन, बस कायर मत बन! ले-दे कर जीना, क्या जीना?
सुख का दिन डूबे डूब जाए
सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'
सुख का दिन डूबे डूब जाए। तुमसे न सहज मन ऊब जाए। खुल जाए न मिली गाँठ मन की, लुट जाए न उठी राशि धन की, धुल जाए न आन शुभान�
कौन तम के पार?
सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'
कौन तम के पार?—(रे, कह) अखिल-पल के स्रोत, जल-जग, गगन घन-घन-धार-(रे, कह) गंध-व्याकुल-कूल-उर-सर, लहर-कच कर कमल-मुख-पर हर्ष-अल�
भजन कर हरि के चरण मन
सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'
भजन कर हरि के चरण, मन! पार कर मायावरण, मन! कलुष के कर से गिरे हैं देह-क्रम तेरे फिरे हैं, विपथ के रथ से उतरकर बन शरण का �
मरा हूँ हज़ार मरण
सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'
मरा हूँ हज़ार मरण पाई तब चरण-शरण। फैला जो तिमिर-जाल कट-कटकर रहा काल, अँसुओं के अंशुमाल, पड़े अमित सिताभरण। जल-कलकल-
उत्साह
सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'
बादल, गरजो!— घेर घेर घोर गगन, धाराधर ओ! ललित ललित, काले घुँघराले, बाल कल्पना के-से पाले, विद्युत-छवि उर में,कवि नवजीवन
फूटे हैं आमों में बौर
सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'
फूटे हैं आमों में बौर, भौंर वन-वन टूटे हैं। होली मची ठौर-ठौर, सभी बंधन छूटे हैं। फागुन के रंग राग, बाग़-वन फाग मचा है
छलके छल के पैमाने क्या
सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'
छलके छल के पैमाने क्या! आए बेमाने माने क्या! हलके-हलके हल के न हुए, दलके-दलके दल के न हुए, उफले-उफले फल के न हुए, बेदान
छोड़ दो, जीवन यों न मलो
सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'
छोड़ दो, जीवन यों न मलो। ऐंठ अकड़ उसके पथ से तुम रथ पर यों न चलो। वह भी तुम-ऐसा ही सुंदर, अपने दुख-पथ का प्रवाह खर, तुम
कोई दीवाना कहता है
कुमार विश्वास
कोई दीवाना कहता है, कोई पागल समझता है। मगर धरती की बेचैनी को बस बादल समझता है॥ मैं तुझसे दूर कैसा हूँ, तू मुझसे दूर क�
बहुत देर से सोकर जागी
कुमार विश्वास
बहुत देर से सोकर जागी दिशा-वधू मौसम के गाँव अत: डरी लज्जित-सी पहुँची छूने दिवस-पिया के पाँव आँखों वाली क्षितिज-रेख
सच के लिए लड़ो मत साथी
कुमार विश्वास
सच के लिए लड़ो मत साथी, भारी पड़ता है! जीवन भर जो लड़ा अकेला बाहर-अंदर का दु:ख झेला पग-पग पर कर्तव्य-समर में जो प्राण�
मेरे मन तेरे पागलपन को
कुमार विश्वास
मेरे मन तेरे पागलपन को कौन बुझाए तेरी ठंडी अगन को दुनिया के मेले में, घूमे अकेले तू काहे को यादों से खेले ख़ुद से क�
अभी-अभी एक गीत रचा है तुमको जीते-जीते
कुमार विश्वास
अभी-अभी एक गीत रचा है तुमको जीते-जीते अभी-अभी अमृत छलका है अमृत पीते-पीते अभी-अभी साँसों में उतरी है साँसों की माया

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