कविता

बचे बच्चे
प्रेमशंकर शुक्ल
पृथ्वी की आयु में बच्चे बारहमासी बसंत हैं बच्चों की हँसी-ख़ुशी से ही धरती पर फूल खिलते हैं फूलों में रंग नहीं खिलते
हमारे गाँव की शाम
प्रेमशंकर शुक्ल
खेतों से हर शाम घास का गट्ठर लिए लौटते हैं माँ-पिता चूजों के लिए चोंच में दाने दबाए टेढ़ी लकीरों में लौटते हैं पक्ष
बड़ी माँ
प्रेमशंकर शुक्ल
अचानक एक दिन उस काया को ढोने में पंचतत्वों ने मनाही की और आत्मा ने कहा— कि अब चलना चाहिए देखते-देखते उसके चेहरे क�
अभिनय
प्रेमशंकर शुक्ल
एक दिन मैंने अपनी पत्नी के सामने अपनी पत्नी के ग़ुस्से का अभिनय किया हँसते-हँसते हो गई वह लहालोट इस तरह एक स्त्री अ�
दिए बेचती औरत
प्रेमशंकर शुक्ल
बड़े शहर के चौराहे पर दिए बेचती औरत धूप में अपने आदमी को छाँह में बैठने के लिए कहती है और धूप में बैठी रहती है ख़ुद दि�
कच्चा प्रेम
प्रेमशंकर शुक्ल
आम पृथ्वी के तन और सूरज के मन से बना फल है पृथ्वी आम में मीठे रस भरती है और सूरज उसे पकाता है आम ऐसा मीठा फल है पककर ज�
माँ को
प्रेमशंकर शुक्ल
धूप में सुखाने का चलन है माँ को हमने कभी धूप में तो नहीं सुखाया फिर इतना क्यों सूख गई है माँ! माँ सूखती रही और हमें प�
लोकगीत
प्रेमशंकर शुक्ल
मेरे कंठ ने अभी जिस सुगंधित-कोमल लोकगीत का स्पर्श पाया। वह एक मेहनतकश सुंदर स्त्री के होंठ से फूटा है पहली बार। इ�
तुम्हारी आँखें
प्रेमशंकर शुक्ल
तुम्हारी आँखों में विश्वास धीरज और करुणा से मिला देह-जल है उनके नीचे का स्याह भाग बार-बार क्षमा के बैठने से स्याह �
बारिश
जावेद आलम ख़ान
खिड़की से बूँदें देखकर लहकी लड़की भीगने के लिए जब तक छत पर पहुँची बारिश रुक चुकी थी उसके तलवे सहलाने के लिए रह गई थ�
वो जो मैं हूँ
जावेद आलम ख़ान
किसी वीरान खंडहर का धन हूँ किसी जन्मांध का काला स्वप्न हूँ आज़ादी के लिए छटपटाती इच्छाओं का कोष्ठक हूँ मैं ख़ुद ह�
ज़िंदगी
जावेद आलम ख़ान
एक पल की ज़िंदगी उदास सन्नाटे में खनकी पायल की महीन आवाज़ जैसी सुनसान अँधेरे उगलते वीराने से दिखती दूर गाँव में �
शब्द
महेश चंद्र पुनेठा
क्या तुम्हें डर नहीं लगता उन शब्दों के इस्तेमाल से जिनका कोई मेल नहीं तुम्हारे जीवन से शब्द कोई गेंद नहीं कि जिनस�
एक और पृथ्वी है औरत
महेश चंद्र पुनेठा
दरवाज़ों खिड़कियों में लटक गए हैं पर्दे मेज़ में नया मेज़पोश कुर्सियों में गद्दियाँ तरतीब से सज गई हैं मेज़-कुर्�
सोया हुआ आदमी
महेश चंद्र पुनेठा
कितना दयनीय लगता है बस के सफ़र में सोया हुआ आदमी पैंडुलम की तरह झूलती हुई उसकी गर्दन बाईं ओर से घूमती हुई अक्सर दा�
सीखना चाहता हूँ
महेश चंद्र पुनेठा
नदी के पास नहीं है कोई क़लम न ही कोई तूलिका न ही हथौड़ा छेनी फिर भी लिखती है नई इबारत बनाती है नए-नए चित्र गड़ती है नई
साहस है तुम्हारे भीतर
महेश चंद्र पुनेठा
तुम मुझे अच्छी लगती हो इसलिए नहीं— कि तुम्हारी मुस्कान में है दिशाओं के खुलने की-सी उजास कि तुम्हारी नज़रों में ह
अपनी ज़मीन
महेश चंद्र पुनेठा
पहाड़ इसलिए पहाड़ है क्योंकि जितना फैला है वह आसमान में उससे अधिक धँसा है कहीं अपनी ज़मीन में।
कन्या-पूजन
महेश चंद्र पुनेठा
अल्ट्रा साउंड की रिपोर्ट आने के बाद से घर का माहौल ही बदला-बदला है सास-ससुर के व्यवहार में आ गई है थोड़ी नरमी पति क�
गाँव में सड़क
महेश चंद्र पुनेठा
अब पहुँची हो सड़क तुम गाँव जब पूरा गाँव शहर जा चुका है सड़क मुस्कुराई सचमुच कितने भोले हो भाई पत्थर, लकड़ी और खड़िया तो
दाल
महेश चंद्र पुनेठा
दाल बस केवल दाल कहाँ गई भट की चुड़कानी कहाँ पिसे भट की सब्ज़ी कहाँ भट का भटिया कहाँ मसूर-गहत के डुबके कहाँ माँस-ककड़�
जीवन में किताबें
महेश चंद्र पुनेठा
कुछ लोग जीवन भर कुछ किताबों को इतना बाँचते हैं इतना बाँचते हैं कि उनमें लिखे कुछ ज़िंदा शब्दों का भी दम निकल जाता
पहाड़ टूटना
महेश चंद्र पुनेठा
नहीं... नहीं... मुझे इल्ज़ाम न दो मैं कहाँ टूटता हूँ आदमी पर आदमी टूट रहा है मुझ पर। मेरे बाल मेरी खाल मेरी हड्डी मेर
ओड़ा का पत्थर
महेश चंद्र पुनेठा
बहुत बाद में गाढ़ा जाता है खेत के बीचोबीच लेकिन बहुत पहले पड़ जाती है नींव इसकी दिलों के बीच जैसे दिलों की खाइयाँ उ�
माँ का अंतर्द्वंद्व
महेश चंद्र पुनेठा
माँ मैं नहीं समझ पाया तुम्हारे देवता को बचपन से सुनता आया हूँ उसके बारे में पर उसका मर्म नहीं समझ पाया कभी होश सँभ
दुःख की तासीर
महेश चंद्र पुनेठा
पिछले दो-तीन दिन से बेटा नहीं कर रहा सीधे मुँह बात मुझे बहुत याद आ रहे हैं अपने माता-पिता और उनका दुःख देखो ना! कित
पहली कोशिश
महेश चंद्र पुनेठा
मैं न लिख पाऊँ एक अच्छी कविता दुनिया एक इंच इधर से उधर नहीं होगी गर मैं न जी पाऊँ कविता दुनिया में अँधेरा कुछ और बढ़ ज
अमर कहानी
महेश चंद्र पुनेठा
न उस राजा के कारण न पारदर्शी पोशाक के कारण न उस पोशाक के दर्ज़ी के कारण न चापलूस मंत्रियों के कारण न डरपोक दरबारिय�
प्रेम में पगी
महेश चंद्र पुनेठा
इन दिनों— च्यूरे के फूल के मकरंद-सी मिठास है उसकी बोली में। पूनम की चाँदनी में झिलमिलाती झील-सी चमक है उसकी आँखों
यह जगह काफ़ी है
मोहन राणा
दो पतों के बीच लापता भूगोल में लिख बंद कर दिया पढ़ना मैंने चेहरा एक नाम दूसरा फिर तीसरा, मेरी तुम्हारी कहानी रह गई क

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