कविता

जो पहले था आज नहीं है
बिंदेश कुमार झा
आसमान आज भी बरस रहा है, कल पानी बरसा रहा था, आज आग है। आसमान भी काला है, चंद्रमा भी सफ़ेद चादर ओढ़ा होगा, आज उसमें भी दा
अधूरे शब्द
प्रवीन 'पथिक'
धुंधलका होते ही बनने लगती विरह की कविताएँ एक छवि तैर जाती है ऑंखों में दिनभर की बेचैनी, आक्रोश, तपन केंद्रित हो जा�
जाल
मदन लाल राज
मकड़ी सिद्धहस्त है, ख़ुद जाल बनाने में। फिर तरकीब लगाती है, शिकार को फँसाने में। अपने रसायन से वो बेतोड़ जाल बुनत�
तू ज़िंदा है!
संजय राजभर 'समित'
उठ चल! और लड़ गर साँस लेता हुआ तू ज़िंदा है तो याद रख तुझे आगे बढ़ना ही पड़ेगा, गर थक गया है तो माँझी को देख गर अंधा है �
सिन्दूर के बदले
पवन कुमार मीना 'मारुत'
युद्ध यादें दे जाता है कड़वी-कड़वी यादें। ले जाता है साया दुधमुँहें बच्चों के सिर से बाप का। और दे जाता है सिन्दूर �
सहर को सहर नहीं कहता
हेमन्त कुमार शर्मा
परहेज़ करता है वह खिलखिलाने से, कि अपने मन की सरे-आम बताने से। यूँ चुप रहता है और आँखों से ख़ूब बोलता है, जाने क्या आत�
लिखूँ तो मैं लिखूँ क्या
चक्रवर्ती आयुष श्रीवास्तव 'ज़ानिब'
लिखूँ तो मैं लिखूँ क्या? जो बोले, पर मौन रहे। जो जल जैसा हो थिर-थिर, पर भीतर ही भीतर बहे। जिसमें रूप न कोई दिखे, ना को�
शर्मिंदगी
राजेश राजभर
मौन हो! तुम कौन हो? क्यों छिपते हो, शर्मिंदगी की आड़ में। एक नारी ही तो "नग्न" हुई, आज भरे बाज़ार में! मौन हो! तुम कौन ह�
पहली बार बारिश
बिंदेश कुमार झा
पहली बार बारिश कहाँ हुई थी? मिट्टी की गोद में, गर्भ के विरोध में, वैज्ञानिकों के शोध में— नहीं मालूम। आख़िरी कब हो
आत्म विश्लेषण
बिंदेश कुमार झा
आसमान से पूछी गहराई, सोए समुद्र से उसकी लंबाई। तारों से उनकी गिनती, सूरज से उसकी परछाई। मिला जवाब तब मुझे, जब मैंने
कौन जीता है, कौन मरता है
बिंदेश कुमार झा
अनंत नभ के नीचे, अपनी गति से चलता है, निरंतर असफल प्रयास से जो नहीं ठहरता है। जो अश्रु नहीं, लहु पीता है, वही जीता है�
नन्हा-सा पौधा
बिंदेश कुमार झा
धरती की छत तोड़कर, एक पौधा बेजान-सा आकार, सूर्य की लालिमा से प्रोत्साहित उठ रहा है देखने संसार। बादलों ने चुनौतिय�
तुम में और मुझ में कौन है बेहतर?
बिंदेश कुमार झा
तुम में और मुझ में कौन है बेहतर ऊँची पर्वतों की चोटी यह धरती का लघु कण, राजकुमार का शयन कक्ष या योद्धाओं का रण? तुम �
अहंकार
बिंदेश कुमार झा
गगन के हृदय में अंकित सितारा अपनी यश-गाथा का विस्तार कर रहा, इतराकर सूरज से बैर किया है सूर्य की लालिमा मात्र से कह�
क्या तुम नहीं जानते
बिंदेश कुमार झा
क्या तुम नहीं जानते पर्वतों के पीर को, व्याकुल संसार के संपन्न तस्वीर को। क्या तुम नहीं जानते जलती हवा के शरीर क
बसंत का त्यौहार
बिंदेश कुमार झा
शीत के प्रताप प्रभाव हो रहा व्याकुल संसार, प्रसन्नता का आयाम लेकर आया बसंत का त्यौहार। सो रही कलियाँ उठ रही है अँ
सुनो प्रिय
बिंदेश कुमार झा
यह जो तुम्हारा मेरा प्रेम है, यह काग़ज़ों तक सीमित नहीं। पुष्पों के सुगंध से भी परिभाषित नहीं॥ यह जो तुम्हारा समर्प
तुम मेरे सबसे समीप हो
बिंदेश कुमार झा
तुम मेरे सबसे समीप हो फिर शब्दों की ध्वनि का क्या? आत्मप्रेम का सम्मान मिलता है, फिर व्यथा को साहस ही क्या? यह जीवन �
बारिशों के आँसू
मदन लाल राज
ऐसे भी लोग हैं जो दूसरों की चिताओं पर अपनी रोटी सेक लेते हैं। पर वो कहाँ मिलेंगे जो बारिशों में भी आँसू देख लेते है
कविता और कवयित्री
संजय राजभर 'समित'
मैंने पूछा– "तू इतनी उदास क्यूॅं है?" तो वह अपनी आँखें झुका ली। आप बीती कैसे बयाँ करती वो आँखों से अश्कों को ही छुपा
घना धुँध
प्रवीन 'पथिक'
जीवन गहराता जा रहा, एक घने धुँध से। मन व्याकुल है; जैसे पिंजरे में बंद कोई पक्षी हो। हृदय आहत है; अपने ही द्वारा किए
जा रही हूँ छोड़ उपवन - कविता - श्वेता चौहान 'समेकन'
श्वेता चौहान 'समेकन'
जा रही हूँ छोड़ उपवन, फिर कभी न आऊँगी। लौटना असंभव मेरा अब, हूँ तिरस्कृत बार-बार। अब न मुझको बाँध सकेंगी, प्रिय! तुम�
नदी की धारा
राजेश राजभर
जल ही जल निर्मल पावन अखण्ड अलौकिक मन भावन हे सरिता, तटिनी, तरंगिणी, जीवनदायिनी निर्झरिणी। उदगम अनन्त अद्भुत संक�
बुढ़ापा
राजेश राजभर
तितर-बितर भई डाली-डाली, झर गई सगरो पाती, चौथेपन की राह कठिन है– कौन जलाए साँझ की बाती। आँखों में सैलाब उमड़ता चढ़त�
अभिमत
राजेश राजभर
सत्य का सत्कार हो, भू-धरा पर मानवता का शृंगार हो, भू-धरा पर। रह न जाए आखिरी -पंक्ति विरान, जन-जन का सम्मान हो-भू-धरा पर�
मैं प्रवासी मज़दूर
राजेश राजभर
भूख से लथपथ– जीवन पथ पर, मिटने को मजबूर, मैं प्रवासी मज़दूर– मेरी आत्मनिर्भरता ख़त्म हो गई! मज़दूरी मौन हों गई! महामा
गाँव की छाँव
राजेश राजभर
अब नहीं रहना चाहता, कोई गाँव में, आम, नीम, पीपल, महुआ की छाँव में। क्या यही यथार्थ है! हमारे गाँव का! शहर जा रहा, हर आदमी
फिर फिर जीवन
रोहित सैनी
अगर कभी तुम्हें लगे अकेले ही पर्याप्त हो तुम अपने लिए जब लगे अकेले जीवन जिया जा सकता है, मुश्किल नहीं! तब अपनी जान क�
फिर से नवसृजित होना
कमला वेदी
मनुष्य को जवाँ और ज़िंदा बनाए रखती है छोटी-छोटी ख़ुशियाँ छोटे-छोटे एहसास जीने को ज़रूरी है थोड़ी-सी चाह थोड़ी-सी प्यास
मकड़ी
प्रवीन 'पथिक'
अपने कटु मनोभावों का जाल, बुनती हुई मकड़ी! सोद्देश्य– निमग्न अवस्था में कुएँ के अंतिम छोर तक; पहुॅंच गई है। अप्रत�

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