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ये कैसा श्रद्धा भाव (संस्मरण)

इस समय पितृ पक्ष चल रहा है। हर ओर तर्पण श्राद्ध की गूँज है। अचानक मेरे मन में एक सत्य घटना घूम गई।
रमन (काल्पनिक नाम) ने कुछ समय पहले मुझसे एक सत्य घटना का ज़िक्र किया था। रमन के घर से थोड़ी ही दूर एक मध्यम वर्गीय परिवार रहता था। बाप रिटायर हो चुका था। दो बेटे एक ही मकान के अलग अलग हिस्सों में अपने परिवार के साथ रहते थे। पिता छोटे बेटे के साथ रहते थे। क्योंकि बड़ा बेटा शराबी था। देखने में सब कुछ सामान्य दिखता था। दोनों भाईयों में बोलचाल तक बंद थी।

अचानक एक दिन पिताजी मोहल्ले में अपने पड़ोसी से अपनी करुण कहानी कहने लगे।
हुआ यूँ कि दोनों बेटों ने उनके जीवित रहते हुए ही उनका फ़र्ज़ी मृत्यु प्रमाण पत्र बनवाकर एक दूसरा मकान, जो पिताजी ने नौकरी के दौरान लिया था, उसे अपने नाम कराने की साज़िश लेखपाल से मिलकर रच डाली।
संयोग ही था कि पिता को पता चल गया और उनकी साजिश नाकाम हो गई।

धीरे धीर बात पूरे मोहल्ले में फैल गई लोग आश्चर्य से एक दूसरे से यही कह रहे थे कि आख़िर इन दोनों को ऐसा करने कि ज़रूरत क्या थी?

आख़िर सच भी खुल ही गया कि वे दोनों ही उस मकान को बेंचना चाहते थे। लेकिन समझ में ये नहीं आ रहा था कि आख़िरकार पिता की सारी सम्पति के वारिस तो ये दोनों ही थे।

विश्वास करना कठिन लगता है, परंतु विश्वास इसलिए करना होगा कि सब कुछ रमन स्वयं देख चुका था। यही नहीं जब इनके पिताजी नहीं रहे तो मृत्यु वाले दिन रात भर उनकी लाश बाहर लावारिस की तरह पड़ी थी, जिसकी रखवाली ख़ुद रमन ने अपने एक मित्र के साथ भोर तक की, क्योंकि सुपुत्र महोदय सपरिवार सोने के लिए अंदर हो गए और मुख्य द्वार भी बंद कर लिया। भोर में जब लोग आने लगे तब वे और उनका मित्र अपने घर गए।
शायद इसीलिए कहा जाता है कि विनाश काले विपरीत बुद्धि।

कहानी सुनाने कहने का मेरा मतलब सिर्फ़ इतना भर है कि विचार कीजिए कि ऐसी औलादों के द्वारा किया गया श्राद्ध तर्पण तीर्थ आदि पुरखों को कितना भाता होगा?


लेखन तिथि : 11 सितम्बर, 2020
            

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