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व्यथित हृदय (कविता) Editior's Choice

व्यथित है मेरा हृदय-प्रदेश
चलूँ उसको बहलाऊँ आज।
बताकर अपना दुख-सुख उसे
हृदय का भार हटाऊँ आज॥

चलूँ माँ के पद-पंकज पकड़
नयन जल से नहलाऊँ आज।
मातृ-मंदिर में—मैंने कहा—
चलूँ दर्शन कर आऊँ आज॥

किंतु यह हुआ अचानक ध्यान
दीन हूँ, छोटी हूँ, अज्ञान!
मातृ-मंदिर का दुर्गम मार्ग
तुम्हीं बतला दो हे भगवान!

मार्ग के बाधक पहरेदार
सुना है ऊँचे-से सोपान।
फिसलते हैं ये दुर्बल पैर
चढ़ा दो मुझको हे भगवान्!

अहा! वे जगमग-जगमग जगी
ज्योतियाँ दीख रही हैं जहाँ।
शीघ्रता करो, वाद्य बज उठे
भला मैं कैसे जाऊँ वहाँ?

सुनायी पड़ता है कल-गान
मिला दूँ मैं भी अपनी तान।
शीघ्रता करो, मुझे ले चलो
मातृ-मंदिर में हे भगवान्!

चलूँ, मैं जल्दी से बढ़ चलूँ
देख लूँ माँ की प्यारी मूर्ति।
अहा! वह मीठी-सी मुसकान
जगाती होगी न्यारी स्फूर्ति॥

उसे भी आती होगी याद
उसे? हाँ, आती होगी याद।
नहीं तो रूठूँगी मैं आज
सुनाऊँगी उसको फरियाद॥

कलेजा माँ का, मैं संतान,
करेगी दोषों पर अभिमान।
मातृ-वेदी पर घंटा बजा,
चढ़ा दो मुझको हे भगवान्!!

सुनूँगी माता की आवाज़,
रहूँगी मरने को तैयार।
कभी भी उस वेदी पर देव!
न होने दूँगी अत्याचार!!

न होने दूँगी अत्याचार
चलो, मैं हो जाऊँ बलिदान।
मातृ-मंदिर में हुई पुकार
चढ़ा दो मुझको हे भगवान्॥


            

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