ख़ुशनुमा दिन
हथेलियों पर बो देता है
काग़ज़ी फूलों का जंगल,
भ्रांतियों के आकाश में
कौंधती है जब बिजली,
मेरे भीतर चिनगारियाँ
भड़क उठती हैं।
गर्द चेहरे पर
धब्बे-सा उगता है चाँद
अँधेरे के दलदल को चीरता हुआ।
तब ज़िंदगी का काला हिस्सा
उजाले से दमकने लगता है।
धूपछाँही अनुभवों को
सहेजती हुई मैं
बार-बार प्रयत्न करती हूँ
कि बिल्कुल भूल जाऊँ
उस सच को
जिसने पैदा किए हैं ढेर सारे झूठे एहसास।
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