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उपहार (कविता)

रोज़ आता यह भक्त, प्रभु तोरे दरबार,
नहीं माँगा मैने आजतक, तुमसे कोई उपहार।
सोचता हूँ, नहीं है मुझे, कोई भी अधिकार,
कैसे माँगू मैं तुमसे, कोई भी उपहार?

हवा, जल, नदी, नाले, ऊँचे सारे तरुवर,
सूरज दिया, चाँद दिया, और दिया अंबर।
धरती दी, समंदर दिया, और जीने का अधिकार,
कैसे माँगू प्रभु तुमसे, अब कोई उपहार?

घर दिया, छत भी दी, दिया एक परिवार,
माँ मिली, पिता मिले, अपनो का मिला प्यार।
रहने को मिला मुझे, एक सुनहरा संसार,
कैसे माँगू मैं अब, इससे ज़्यादा उपहार?

जंगल दिए, दिए शेर, चीता और सियार,
पेड़ों पर उगे आम, जामुन और उगे अनार।
बिखरे पड़े धरा में, आप के दिए उपहार,
समेट न पाऊँ पूरी ज़िंदगी, सारे ये उपहार।

जीवन मिला, मिला साथ में जीने का जज़्बा,
उच्च शिक्षा मिली, मिला समाज में रुतबा।
पूरा जीवन ही तो है तुम्हारी इनायत,
और कुछ माँगने की कैसे करूँ हिमाक़त?

मैं तो प्रभु हो गया, तुम्हारी ही क़र्ज़दार,
शायद ही चुका पाऊँ, तुम्हारे इतने उधार।
मैने तो मान लिया, इन्हे तुम्हारा उपहार,
कैसे माँगू मैं प्रभु, अब और कोई उपहार?

फिर भी हिम्मत करके, माँगता हूँ एक उपहार,
मिटा डालो संसार से, सारे ग़लत व्यवहार।
करो कुछ ऐसा जतन, कि ख़त्म हो व्यभिचार,
आज माँगू मैं आपसे, समानता का अधिकार।

फैला के झोली खड़ा हूँ, आप के ही दरबार,
देदो प्रभु मुझे आज, इंसानियत का उपहार।
न करे अब कोई, पावन प्रकृति पर अत्याचार,
न हो धरा पर अब, इंसानियत का बलात्कार।

जीली मैने ज़िंदगी, औरों का भी है अधिकार,
ग़रीबों पर अमीर न करे, कोई भी अत्याचार।
न हो कोई अनाचार, सुनहरा हो यह संसार,
आज प्रभु माँगू मैं तुमसे, यही एक उपहार।

न काटें हम अमूल्य दरख़्त, न तोड़े पहाड़,
प्रकृति के सँग करें, हम समुचित व्यवहार।
ऐसी शक्ति दो हमे, न सहे कोई अत्याचार,
सच्चाई की हो सदा, दिल से जय जयकार।

एक विश्व हो, हो समरसता का अधिकार,
न हो भावनाओं में, कोई भी प्रतिकार।
माँगता हूँ मैं प्रभु, आज यही उपहार,
मत करना प्रभु, इस बात पर इनकार।


लेखन तिथि : 22 सितम्बर, 2021
            

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