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उलझी ज़िन्दगी (कविता)

ज़माने से चाहा था मैं ख़ूब आराम करूँ,
बेफ़िक्र हो जैसे चाहूँ समय बर्बाद करूँ।
पर हुआ कि होश सम्भालते स्कूल पहूँचा,
हुक्म हुआ कि घर आते घर का पाठ करूँ।।

जवानी में चाहा ख़ूब मौज़-मस्ती करूँ,
रंग-रूप सँवारने को ख़ूब फ़ैशन करूँ।
पर बीता समय रोज़गार के जुगाड़ में,
विकृत हुआ बाहरी रूप भागमभाग में।।

नौकरी मिली तो लगा हुआ मैं मालामाल,
सारी ख़ुशियाँ पाकर हो जाऊँगा निहाल।
पर महीने के ख़र्च ने बनाई मेरी फटेहाल,
हिसाब-किताब करते ख़राब हुई मेरी हाल।।

शादी हुई तो जन्नत पाने का जगा अरमान,
लगा ख़ुशियाँ पाने का अब मिला फ़रमान।
पर बीबी के ख़िदमत में जीवन हुआ बेहाल,
बाक़ी बच्चों के परवरिश में हुआ बुरा हाल।।

बच्चों को कामयाब बना लगा अकेला हुआ,
सेवानिवृत्त के बाद लगा जीवन ख़राब हुआ।
पर जब चैन की नींद और ख़ूब आराम मिला,
तब भागमभाग जीवन का अभिप्राय मिला।।


लेखन तिथि : 20 जून, 2021
            

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