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तपिश (कविता)

भयंकर तपिश के दरमियाँ,
ये जो शीतल जल है।
यही तो बस आजकल,
जीने का सम्बल है।
उफ़ ये जलती फ़िज़ाएँ,
अंधड़ की डरावनी सदाएँ।
ये आँधियाँ ये गर्मगोले,
लगता है रूठ गए हैं भोले।
निर्धन जन करते करुण पुकार,
क्योंकि उनके पास नहीं है,
नहीं है संसाधनों की भरमार।
मन ही मन करते रहते
एक अनकही, अनसुनी गुहार।
हे सूर्य देव अब शांत हो जाओ
हमारे जीवन मे भी ला दो
अब शीतलता की बहार।
अब घर मे खाना नहीं बचा
पतीले में दाना नहीं बचा
ऊपर से ये लू की ये मार।
शीतलता के बादल बन
अब बरस जाओ प्रभु!
सुन लो न ग़रीब की गुहार।


लेखन तिथि : 16 मई, 2022
            

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