कौमुदी थिरके धरा पर,
स्याह रजनी को हरा कर।
साँझ ले आती उदासी,
चाहतें लेती उबासी।
छोड़ कर हम को अकेले,
नींद बैरन है प्रवासी।
चाँद देखे मुस्कुरा कर,
स्याह रजनी को हरा कर।
यामिनी है गीत गाती,
रागिनी मन को लुभाती।
दर्द कुछ थम सा गया है,
चाँदनी उर में छुपाती।
पीर पसरी चरमरा कर,
स्याह रजनी को हरा कर।
ओस से भीगी मही है,
वेदना उसने सही है।
जागती वह है युगों से,
बात कोई अनकही है।
मुश्किलें चल दीं डरा कर,
स्याह रजनी को हरा कर।
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