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सुनो शिकारी (कविता)

पहले तुम शिकारी की
तरह जाल फैलाते हो।
मेरी मजबूरी का
फ़ायदा उठाकर
पैसा सूद पर देकर
मुझे जाल में फँसाते हो।।
ब्याज, पेनल्टी के नाम पर
फिर कभी नहीं चुक पाते।
मुझे बेगार पर लगाकर,
मुझे दर्द व घाव देकर,
मेरा ख़ून दाव पर लगाकर
मेरे जीवन की बलि चढ़ाकर
तुम नहीं चुक पाते हो।
मेरी जड़ ज़मीन लेकर भी
मेरे परिवार की
इज़्ज़त को ताकते हो।।
तुमने यातना के
अलावा क्या दी है।
मेरे पसीने की गंध
कभी महसूस की है।।
तुम्हारी परंपराएँ अब
बहुत दिन नहीं चलेगी।
अब संविधान और
क़ानून की चलेगी।।
नहीं सहूँगा लाचारी
और बेबसी के शूल।
अब संविधान में पढ़ लिए
बेगार प्रथा के रूल।।
समय के बदलाव को
अब गया हूँ जान।
अधिकारों को जानने
अब पढ़ लिया संविधान।।


रचनाकार : समय सिंह जौल
लेखन तिथि : 31 जुलाई 2021
            

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