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सुई-धागा (कविता)

सुई तो होती छैल-छबीली, धागा सीधा-साधा,
सुई करती रहती छेद, धागा सिलता जाता।
सुई-धागे की प्रेम कहानी, बहुतों ने न जानी,
एक है थोड़ी कड़क, दूसरा नरम दिलजानी।

सुई चलती आगे-आगे, धागा उसके पीछे भागे,
रहती दोनों में रेस, कौन पीछे कौन आगे।
दोनों का जोड़ बड़ा बेमोल, लगाए कितने टाँके?
पुराने हो या नए हो कपड़े, झट लगा देतें टाँके।

सुई धागे का रिश्ता, दर्शाता सच्ची प्रीत,
एक दूसरे में दोनों, रहते हैं सदा समाहित।
मिल जाते जब दोनों, करते नहीं अहित,
ज़िंदगियों को सिलने में, ख़ुद को करते अर्पित।

अच्छे विचार सुई कहलाते, वाणी विचार का धागा,
जिसके पास दोनों न रहते, जीवन उसका अभागा।
विचारों को जब वाणी मिलती, लिख दी जाती भगवत गीता,
रचते महाभारत, लिखी जाती रामायण की सीता।

विचारों की सुई जब चलती, पिरोके वाणी का धागा,
वेदों के उच्चारण से, धर्मभाव संसार में जागा।
बनी आसमान की चादर, टाँक दिए तारे हज़ार,
दुल्हन की ओढ़नी सजादी, चढ़ा प्यार का ख़ुमार।

सुई-धागे का प्रेम अनोखा, ऐसा मिलन कभी न देखा,
एक को सख़्त-सख़्त, दूसरे को सदा नरम ही देखा।
एक दूजे में मिलकर, दुःखों के बादल ढकते देखा,
ग़रीब की इज़्ज़त को, सुई धागे से सिलते देखा।

प्रभु की माला गुंथी जाती, सुई धागा जब होते साथ,
स्नेह की बगिया में खिलते फूल, करते जब हम प्यार की बात।
सुई-धागे से सिलते चादरें, मज़ारों पर चढ़ाई जाती,
दोनों की यह स्नेह भावना, मन में प्रीत का भाव जगाती।

सुई-धागे से आज मैंने, सीखी यही एक बात,
सुई का दिल चीरकर, धागा करता प्रीत की बात।
दिल में रहकर ही करें हम, दिल से दिल की बातें,
ऐसी ही होती जीवन में, दो दिलों की चाहतें।


लेखन तिथि : 14 अक्टूबर, 2021
            

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