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स्थायित्व (कविता)

ब्रह्मांड का हर कण दूसरे कण को
आकर्षित अथवा प्रतिकर्षित
करता रहता है सतत…
ताप, दाब और सम्बेदनाओं से प्रभावित

टूटता-जुड़ता हुआ
नए रूप अथवा आकार के लिए लालायित…

अस्तिथिर होकर, अस्थिरता से स्थिरता के ख़ातिर तत्पर…

दूसरे ही क्षण नए स्वरूप और
पहचान की कामना लिए
विचरित करता है, वन के स्वतंत्र हिरण की भाँति अपनत्व को खोजते हुए
अँधेरों और उजालों में…

थक-हार कर ताकने लगता है
ऊपर फैले नीले-काले व्योम में दूर तलक

एक ऐसी यात्रा की सवारी
जिसका अंत सिर्फ़ अनन्त है,

चलायमान है नदियों की नीर की तरह
जो सूख जाती हैं हर वैशाख तक अब…
सहता रहता है कुदरत के धूप-छाँव
और दुनिया के रीति-रिवाज,

लड़खड़ाता-संभलता और
उलझता, सुलझता हुआ।

छोटे-बड़े क़दमो से बढ़ता रहता है
स्थिरता की ओर…

तिनके से अहम् ब्रह्मास्मि की विभूति तक,
असंम्भव अभिलाषा लिए एक जातक की भाँति
नीति अनीत विसार कर
सगे-सहगामी को विलग कर

अंततः संस्मरण और कल्पनाओं की अस्थायी स्थिरता का आलिंगन करता है।


  • विषय :
लेखन तिथि : 2023
            

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