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सिंहनी (कविता)

स्वर्ण की ज़ंजीर बाँधे,
स्वान फिर भी स्वान है।

धूल धूषित सिंहनी,
पाती सदा सम्मान है।

आत्मनिर्भर स्वाभिमानी,
शौर्य ही पहचान है।

हार ना स्वीकारती,
जाती भले ही जान है।

मान ख़ातिर प्राण देती,
सहती न वह अपमान है।

वीरता ही धर्म उसका,
शौर्य ही ईमान है।

शत्रु भय से वह कभी,
होती नही हैरान है।

परिभाषा उसी से शौर्य की,
सच सिंहनी महान है।


लेखन तिथि : 1 जनवरी, 2018
            

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