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शिक्षक का सच्चा स्वरूप (आलेख)

चरित्रवान शिक्षक बनने के लिए शिक्षक को अपने सच्चे स्वरूप का ज्ञान होना चाहिए।
शिक्षक को चाहिए कि वह स्वयं के स्वरूप को पहचानते हुए ज़िम्मेदारी निभाएँ, अर्थात स्वयं ही सदाचरण धारण करें। क्योंकि वह ही राष्ट्र निर्माता है। देश के नौनिहालों को धरोहर के रूप में राष्ट्र ने शिक्षक की गोद में डाला हुआ है। अतः शिक्षक का यह नैतिक दायित्व बन जाता है कि वह अपने जीवन को उत्कृष्ट एवं उच्च कोटि का बनावे, तभी तो वह दूसरों को अच्छाइयाँ दे सकेगा जब ख़ुद में मौजूद होंगी।

शिक्षक बहुआयामी व्यक्तित्व का होना चाहिए, शिक्षक का जीवन मूल्योंन्मुखी तथा संप्रेषण कला से युक्त होना चाहिए।
उसे राष्ट्र के सांस्कृतिक मूल्यों तथा विचारों में आस्था रखने वाला होना चाहिए। शिक्षक को बाल मनोविज्ञान तथा किशोर मनोविज्ञान का ज्ञाता होना चाहिए। शिक्षक अपने छात्रों से आत्मिक संबंध रखने वाला हो।
शिक्षकों को उत्साहवर्धक, सहयोगी तथा मानवीय बनना चाहिए जिससे विद्यार्थी अपनी संभावनाओं का पूर्ण विकास कर ज़िम्मेदार नागरिक बन सकें। तभी शिक्षक अपना उत्तरदायित्व सफलतापूर्वक निभा सकेंगे।
यथार्थ शिक्षा प्रदान करने का उपाय जानने के लिए पहले शिक्षक को यह जानना होगा कि प्रत्येक मनुष्य के भीतर ज्ञान पहले से ही अंतर्निहित है, कोई भी ज्ञान बाहर से नहीं आता।
गुरु के लिए आवश्यक है वह अपने शिष्य को श्रद्धा की दृष्टि से देखें।
शिक्षक पहले स्वयं पवित्र जीवन जीते हुए सदाचरण अपनावे तभी वह सफल शिक्षक होगा और गुरु कहलाने लायक होगा।
यदि प्रभावशाली उत्तम चरित्र के शिष्यों के जीवन में सारे भाव संचालित नहीं कर पाएँगे शिक्षकों से उनके जीवन को उत्कृष्ट बनाना होगा तभी वह अपने जीवन से अन्य जीवन के दीप प्रज्वलित कर पाएगा।
जब पहले शिक्षक के जीवन में उष्मा का संचार होगा तभी वह दूसरों के जीवन में ऊष्मा का संचार कर सकेगा।
शिक्षा के सभी पक्षों में शिक्षक एक महत्वपूर्ण कड़ी है। शिक्षा के केंद्र बिंदु में शिक्षक ही है, शिक्षा का नाम आते ही शिक्षक की कल्पना स्वतः ही साकार हो उठती है। शिक्षक ही शिक्षा प्रक्रिया की सार्थकता को सिद्ध करता है।

आदि काल से ही शिक्षक की तुलना ईश्वर से की जाती रही है, क्योंकि जिस प्रकृति का शिक्षक होगा उसी प्रकार का राष्ट्र का भविष्य होगा।
इसके लिए शिक्षकों को श्रेष्ठ गुणों से युक्त होना चाहिए ,चरित्रवान, प्रतिभाशाली एवं योग्य होना चाहिए।

इस विषय मे मेरा एक मुक्तक है:
"तम तोम मिटाते हैं जग का,
शिक्षक धरती के दिनकर हैं।
हैं अंक सजे निर्माण प्रलय,
शिष्यों हित प्रभु सम हितकर हैं।
शुचि दिव्य ज्ञान के दाता वह,
सोने को पारस मे बदले।
वह सृजनकार वह चित्रकार,
वह मात पिता सम सुधिकर हैं।"

आजकल भी एकाध विकल्पों को छोड़कर शिक्षक उत्कृष्ट जीवन शैली के होते हैं। कुछ एक को छोड़कर अपनी ज़िम्मेदार को निभाना चाहते हैं, निभाते हैं। मगर वर्तमान समय में प्रबंधन तंत्र व राजनैतिक दबाव के चलते मजबूरी बस ठीक से अपने नैतिक दायित्वों का अनुपालन नहीं कर पाते और समाज की नज़र में दोषी करार दिए जाते हैं। जबकि गुरु अपने धर्म से विमुख है तो घोर पाप का भागीदार होगा मगर व्यर्थ में अगर समाज उसका अपमान करता है, बिना उसकी आंतरिक व्यवस्थाओं को समझे तो यह समझना निश्चित ही होना चाहिए कि राष्ट्र का पतन तय है ।

मैंने लिखा है:
"प्रलय भी निर्माण भी हैं गोद जिसकी पल रहे।
शिक्षक प्रणेता राष्ट्र का कर्तव्य पर यदि दृढ़ रहे।
यदि विमुख है गुरु धर्म से ,तो घोर पातक पात्र है।
पर व्यर्थ अपमानित हुआ, तो पतन की शुरुआत है।"

समाज को भी सोचना चाहिए कि अगर समाज ही शिक्षक के प्रति ग़लत दृष्टिकोन बना लगा तो शिक्षार्थी भी तो इसी समाज का हिस्सा हैं, उन पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा, वह शिक्षक का सम्मान करना, बात मानना छोड़ देंगे और तब जब गुरु और शिष्य की मध्य एक नकारात्मक दीवार पनप जाएगी तो ज़ाहिर है उसमे बच्चों का अधिक नुक़सान होगा। बच्चों की भावनाए अति कोमल होती हैं, उनके मासूम हृदय मे नकारात्मक व सकारात्मक दोनो ही तरह के विचार आसानी से भर सकते हैं, अतः अभिभावकों को छात्रों के मन मे अपने गुरु के प्रति श्रद्धा भाव मे कमी नहीं आने देनी चाहिए नहीं तो वह अभिलक्षित ज्ञानार्जन नही कर सकेंगे, अपनी ग़लतियों व कमियों का दोष शिक्षक के सर मढ़ने लगेंगे। फिर कैसे होगा सामाजिक उन्नयन? कैसे होगा नैतिक विकास? कैसे बनेगा सुशिक्षित राष्ट्र, मजबूत राष्ट्र?

अंत मे शिक्षक के वजूद को परिभाषित करता अपना एक मुक्तक लिख रही हूँ:
"कच्ची मिट्टी को गढ़कर के, वह सुन्दर रूप सजाते हैं।
देते खुराक में संस्कार, वह ज्ञानाहार कराते हैं।
शिक्षक ही पंख लगाते हैं, सपनों की भरने को उड़ान।
पावन शिक्षा के मंदिर के, वह ही भगवान कहाते हैं।"


लेखन तिथि : 3 सितम्बर, 2019
            

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