शाम ढले घर का रस्ता देख रहे थे।
कुछ क़ैद परिन्दे पिंजरा देख रहे थे।।
सब बच्चे देख रहे थे खेल खिलौने,
और मियाँ हामिद चिमटा देख रहे थे।
जिस वक़्त लुटा गाँव डकैतों से यारो,
उस वक़्त दरोगा मुजरा देख रहे थे।
कल शाम बग़ीचे में बैठे बैठे हम,
तितली और गुल का झगड़ा देख रहे थे।
वो वक़्त-ए-रुख़सत हमको देख रही थी,
हम उसका झूठा रोना देख रहे थे।
होती भी तो कैसे भला मन्नत पूरी,
हम पत्थर में यार ख़ुदा देख रहे थे।
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