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सौन्दर्यस्थली कालाकाँकर (संस्मरण) Editior's Choice

प्राकृतिक सौन्दर्य की सुरम्यस्थली कालाकाँकर में मैंने अपने जीवन के सुखद दो वर्ष बिताएँ हैं। मैं बी.एच.यू से कालाकाँकर जब जा रहा था, तब बनारस छोड़ने का बहुत दुःख था। ऐसा लगता था बनारस न छूटे लेकिन बी.एड के लिए सरकारी कॉलेज कालाकाँकर ही मिला था, जाना तो निश्चित था।

एक तरफ़ मुझे ख़ुशी भी थी कि कालाकाँकर में पण्डित मदनमोहन मालवीय, कविश्रेष्ठ सुमित्रानन्दन पन्त, प्रतापनारायण मिश्र, बालमुकुन्द गुप्त, गोपाल राम गहमरी आदि विद्वान रहे, ये सारी पावन स्मृतियाँ मुझे कालाकाँकर की ओर खींच रहीं थीं।

मदनमोहन मालवीय पी.जी कॉलेज में मैंने प्रवेश ले लिया और दिनेश छात्रावास में रहने लगा। दिनेश छात्रावास में कमरा नम्बर एक अतिथि कक्ष मुझे दिया गया। उसकी खिड़की पूर्व की ओर खुलती थी। सामने महाविद्यालय के प्रांगण में प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानन्दन पन्त की भव्य प्रतिमा लगी हुई थी। हमारे कमरे की खिड़की से पन्त जी की प्रतिमा दिखाई देती थी। मुझे सदैव पन्त जी की स्मृतियों से आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती। पन्त जी का व्यक्तित्व एवं कृतित्व मेरे मन को बहुत प्रभावित करता। पन्त जी की सौम्य मुखाकृति एवं घुँघराले बालों की छटा को देखकर पढ़ने वालों के मन में अद्भुत आकर्षण बना रहता। हमारे छात्रावास से थोड़ी दूर कालाकाँकर गाँव के पास जंगल के बीच एक विशाल टीले पर बने छोटे से बँगले को उन्होंनें रहने के लिए चुना और नाम दिया 'नक्षत्र'। कुँवर सुरेश सिंह के विशेष निवेदन पर सुमित्रानन्दन पन्त सन् 1931 में कालाकाँकर आए थे। यहाँ का प्राकृतिक सौन्दर्य एवं शान्त वातावरण पन्त के लिए वरदान सिद्ध हुआ।

एक दिन मेरे गुरुदेव डॉ. रामाज्ञा शशिधर जी ने कहा - "विमल कालाकाँकर पर विस्तार से लिखो, प्रकृति की अनकही कथा कहो"
तब मैंनें कहा "ठीक है गुरुजी ज़रूर लिखूँगा"।

आज भी यहाँ पर प्रकृति की हरियाली अनुपम है। यहीं पर बना पन्त जी का नक्षत्र भवन बहुत सुन्दर लगता है।
सुमित्रानन्दन पन्त 1931 से 1940 तक कालाकाँकर में रहे। पन्त नें 1938 में रूपाभ पत्रिका का शुभारम्भ किया। इसके सम्पादन में श्री नरेन्द्र शर्मा का अभिन्न सहयोग रहा। यह पत्रिका कुँवर सुरेश सिंह के आर्थिक सहयोग से शुरू हुई।

यहाँ पर ग्राम जीवन की सुन्दर झाँकी और खेतों की हरियाली मन को आकर्षित करती है। गंगा की निर्मल धारा कलकल बहती, हम सभी साथी गंगातट बैठकर खूब बातें करते, ज़्यादातर साथी मुझसे कविताएँ सुना करते। गंगा का अलौकिक सौन्दर्य निहारना बेहद अच्छा लगता। कालाकाँकर गाँव माँ गंगा के पावन तट पर स्थित है। इसी गंगा के तट पर सुन्दर राजभवन बना है। पन्त ने नौका विहार रचना यहीं पर लिखी है -

चाँदनी रात का प्रथम प्रहर,
हम चले नाव लेकर सत्वर।
कालाकाँकर का राजभवन,
सोया जल में निश्चिन्त, प्रमन,
पलकों पर वैभव स्वप्न सघन।
नौका से उठती जल-हिलोर,
हिल पड़ते नभ के ओर-छोर।
(कविता - नौका विहार)

राजभवन आज भी बहुत आकर्षित करता है। राजभवन का आधा हिस्सा गंगा के भीतर और आधा हिस्सा गंगा के तट पर है। गंगा का निर्मल पानी राजभवन को सुशोभित करता है। राजभवन ऐतिहासिक स्मृतियों की धरोहर है। ये भवन बहुत पुराने तरीके से बना है। इसकी दीवारें पाँच फुट मोटी हैं, ये बहुत व्यवस्थित व मज़बूत बना है। राजभवन का आँगन बहुत अच्छा लगता है। आँगन के चारों ओर विभिन्न प्रकार के पुष्प लगे हैं। कई छायादार वृक्ष लगे हैं। भवन के बगल में सुन्दर गंगा घाट और कई भव्य मन्दिर बने हैं। आस-पास अद्भुत प्राकृतिक सौन्दर्य की छटा विद्यमान है। वर्तमान में राजभवन की स्थिति बेहतर है। इसकी पूरी देखरेख राजकुमारी रत्ना सिंह करतीं हैं।

'हिन्दोस्थान' पत्र के संस्थापक राजा रामपाल सिंह के निवेदन पर पण्डित मदनमोहन मालवीय कालाकाँकर आए। मालवीय जी ने सन् 1887 से 1889 तक 'हिन्दोस्थान' पत्र का सम्पादन किया। मालवीय जी को 250 रुपये प्रतिमाह मिलते थे। जब मालवीय जी यहाँ से चले गये इसके बाद भी राजा रामपाल सिंह 100 रुपये प्रतिमाह भेजते थे।
सन् 1889 में प्रतापनारायण मिश्र और बालमुकुन्द गुप्त आए। सन् 1892 में गोपाल राम गहमरी आए। कालाकाँकर साहित्यिक, राजनीतिक, सामाजिक गतिविधियों में अग्रणी रहा।
स्वतन्त्रता संग्राम के दौर में 14 नवम्बर 1929 को महात्मा गाँधी आए और यहीं पर विदेशी वस्त्रों की होली जलाई। राजभवन में आज भी गाँधी चबूतरा बना है। इसी पर बैठकर गाँधी जी ने सन्ध्या वन्दन किया था।

महाकवि सुमित्रानन्दन पन्त कालाकाँकर में सब मिलाकर आठ-दस वर्ष रहे। यहाँ का वातावरण पन्त की साहित्य साधना के लिए अनुकूल रहा, यहाँ पर आज भी खेतों में दूर-दूर तक सुन्दर हरियाली दिखाई देती है। पन्त जी का नक्षत्र भवन प्रकृति की गोद में बना है। आषाढ़ और सावन के महीने में नक्षत्र की शोभा और बढ़ जाती है। यहाँ से चारों ओर हरियाली ही हरियाली नज़र आती है, भावों एवं अनुभूतियों का सागर उमड़ने लगता है। इसी बीच पक्षियों का ललित कलरव मन के संगीत को सुर देने लगता है। मेरे जीवन में प्रकृति एवं अध्यात्म का बहुत गहरा प्रभाव रहा है। मैं पन्त की सुरम्य प्रकृति एवं उनके अरविन्द दर्शन की स्मृतियों में खो जाता हूँ और नक्षत्र भवन में बैठे-बैठे सोचता हूँ, इसीलिए पन्त के साहित्य में विश्व चिन्तन की भावना है।
सुमित्रानन्दन पन्त की सृजन प्रक्रिया एवं चेतना के बीज इस वैभवमयी प्रकृति में हैं।
पन्त ने आत्मिका कविता में अपने संस्मरण और जीवन दर्शन को छन्दबद्ध किया है। कालाकाँकर की स्मृतियों पर लिखते हैं -

गंगातट था, श्यामल वन थे,
तरु प्राणों में भरते मर्मर।
जल कलकल, खग कलरव करते,
प्रकृति नीड़ था जनपद सुन्दर।।
(कविता - आत्मिका)

कालाकाँकर में रहते हुए पन्त जी ने गुञ्जन, ज्योत्स्ना, युगवाणी, पल्लविनी, ग्राम्या जैसे काव्य ग्रन्थों की रचना की। कालाकाँकर के ग्राम जीवन ने पन्त को बहुत प्रभावित किया। इसे उनकी काव्यकृति ग्राम्या में देखा जा सकता है।
सुमित्रानन्दन पन्त स्वयं कहतें हैं - "कालाकाँकर में मेरे सौन्दर्य-प्रेमी हृदय को गाँवों की अत्यन्त दयनीय दुरावस्था का दृश्य देखकर अनेक बार कठोर आघात भी लगे हैं और मेरा विचार-जगत क्षुब्ध तथा विचलित होता रहा है"।

सुमित्रानन्दन पन्त नें यहाँ पर रहकर नौका विहार, ग्रामश्री, नक्षत्र, भारतमाता, ग्राम देवता, एक तारा, दो लड़के, चींटी, मैं नहीं चाहता चिर सुख जैसी प्रसिद्ध कविताओं का सृजन किया। इनकी कविताओं को पढ़ते हुए लगता है, पन्त प्रकृति से बात करते हैं। पन्त की मौलिक सर्जनात्मकता इसी प्रकृति एवं ग्रामजीवन से निर्मित होती है।

फैली खेतों में दूर तलक
मखमल की कोमल हरियाली,
लिपटीं जिससे रवि की किरणें
चाँदी की सी उजली जाली।
(कविता - ग्रामश्री)

गाँव की प्राकृतिक शोभा और समृद्धि का मनमोहक वर्णन किया है। खेतों में दूर तक फैली लहलहाती फ़सलें, फल-फूलों से लदी वृक्षों की डालियाँ और गंगा की रेती, तट में तरबूजों की खेती का अद्भुत चित्रण सुमित्रानन्दन पन्त ने किया है।

चींटी है प्राणी सामाजिक,
वह श्रमजीवी, वह सुनागरिक
(कविता - चींटी)

ये सारी कविताएँ पन्त ने कालाकाँकर में ही लिखी हैं। चींटी के माध्यम से निरन्तर कर्म करने की प्रेरणा मिलती है। चींटी श्रमजीवी है, इससे सामाजिक मूल्यों की स्थापना होती है।

मैं नहीं चाहता चिर-सुख
चाहता नहीं अविरत-दुख,
सुख-दुख की खेल मिचौनी,
खोले जीवन अपना मुख।
(कविता - मैं नहीं चाहता चिर-सुख)

जीवन सुख-दुख दोनों के समन्वय का नाम है। न जीवन में ज़्यादा सुख हो, न जीवन में ज़्यादा दुःख हो... सुख-दुख का सामंजस्य ही जीवन में संतुलन लाता है। सुख-दुख से ही जीवन परिपूर्ण होता है।

मेरे निकुञ्ज, नक्षत्र वास!
इस छाया मर्मर के वन में
तू स्वप्न नीड़ सा निर्जन में
है बना प्राण पिक का विलास!
(कविता - नक्षत्र)

पन्त जी नें अपने अवास नक्षत्र पर कविता लिखी है। यहाँ प्रात:काल फूलों के सौरभ से युक्त वायु नक्षत्र भवन से होकर बहती है। यहाँ पर अनिर्वचनीय आनन्द की अनुभूति होती है।

मेरे आँगन में, (टीले पर है मेरा घर)
दो छोटे - से लड़के आ जाते हैं अकसर,
जल्दी से, टीले के नीचे, उधर उतर कर
वे चुन ले जाते कूड़े से निधियाँ सुन्दर,
मानव के बालक हैं ये पासी के बच्चे,
रोम-रोम मानव, साँचे में ढाले सच्चे।
(कविता - दो लड़के)

ये दोनों बच्चे कालाकाँकर गाँव के हैं, इन बालकों नें पन्त जी को बहुत प्रभावित किया। पन्त जी की दृष्टि मानवीय है वे संवेनशील हैं, मननशील हैं। पन्त जी देखते हैं ये पासी के बालक कितने सुन्दर, सुगठित और कितने प्रसन्न हैं। बच्चे कूड़ा से समान बिनकर ले जाते हैं ऐसा लगता है बच्चों को अमूल्य निधि मिल गई है। ये दृश्य पन्त जी देख रहें हैं। पन्त ने अद्भुत चित्रण किया है। गाँवों की दशा को बहुत करीब से पन्त जी ने देखा है। इसलिए पन्त मानव समाज का नवीन स्वप्न देखते हैं।

मुझे कालाकाँकर गाँव को नज़दीक से देखने का मौका मिला है। ग्रामीण जीवन को मैंनें बारीकी से देखा है।

प्रतापगढ़ से तीन बार सांसद एवं राज भवन की संरक्षिका आदरणीया दीदी राजकुमारी रत्ना सिंह मुझे बहुत मानती थीं। मैं दीदी से मिलने अक्सर जाया करता था, दीदी कभी मिलने से मना नही करती थीं। जब भी जाता अच्छे से बात करतीं इनका स्वभाव अत्यन्त सरल व सहज है। दीदी बिना खाना खाए हमें जानें नही देतीं। रत्ना दीदी का स्नेह पाकर मैं बहुत खुश रहता, जब चलने लगता तो कुछ न कुछ पैसे हाथ में दे देतीं और कहती "तुम हमारे ही तो बच्चे हो"।
वो अनाज, तेल, मसाला, साबुन आदि सभी आवश्यक चीज़ें देती और कहतीं "कोई दिक्कत हो तो बताना"। आदरणीया दीदी को मैं कैसे भूल सकता हूँ। मैं आपका सदैव ऋणी रहूँगा।

हमारे छात्रावास से एक किलो मीटर दूर एक गाँव किशुनदास पुर है यहाँ के मिठाई चाचा मुझे बहुत मानते थे। मिठाई चाचा का वास्तविक नाम शिवाकान्त यादव था। त्योहारों में खाना खाने के लिए हमें बुलाते और बीच-बीच में हमारे समाचार लेने वो छात्रावास स्वयं आते रहते थे। चाचा की पत्नी का निधन हो गया था। बेटियों का विवाह हो गया था, उनके कोई पुत्र नही था। अब वो अकेले बनाते खाते थे। कभी-कभी बात करते-करते रोने लगते। मुझे लगता है घर में उन्हें अकेलापन लगता, किसी के न होने की कमी खलती।
गेहूँ , चावल हमारे छात्रावास में दे जाते और कहते कुछ खरीदना नही, घर पर सबकुछ है। जब मैं इनके घर जाता तो बिना खाना खाए आने नही देते। पुत्र की भाँति स्नेह करते, आज मुझे चाचा की बहुत याद आती है। कालाकाँकर जब से छूटा जाने का मौका नही मिला ताकि फिर से मुलाक़ात हो जाए।

हमारे छात्रावास का मैदान बहुत बड़ा था। उसके चारों ओर आम, कटहल, आँवला, अमरूद आदि वृक्ष लगे थे। इसी मैदान में मैं पढ़ने के लिए रोज सुबह बैठता। सुबह पक्षियों का कलरव और ताज़ी हवा मिलती। ऐसे वातावरण में पढ़ना बहुत अच्छा लगता। एक दिन मेरे पास एक व्यक्ति आए।
बोले - "यहीं रहते हो?"
मैंनें कहा - "हाँ"
पहले दिन की बातचीत में इन्द्रपाल चाचा हमारे बहुत करीब हो गए। छात्रावास के बगल में एक आम का बगीचा लिए थे। इसी की देखरेख के लिए यहीं पर रहा करते थे। इनका घर यहाँ से एक किलो मीटर दूर ब्लॉक (पंचायत समिति) के पास था। सुबह- खाना खाने घर जाते, कभी-कभार चाची खाना लेकर यहीं आ जातीं। एक दिन चाची कहने लगीं - "घर कहाँ है भइया"
मैंनें कहा- "फतेहपर"
चाची बोलीं - "फतेहपुर तो हमरो घर है"।
मेरे सहपाठी भाई चौधरी कुँवर सिंह और मुझे चाचा-चाची बहुत चाहते, चाची घर से बीच-बीच में खाने के लिए कुछ न कुछ भेजतीं रहतीं। घर से जैसे लगाव हो गया था। यहाँ से पढ़ाई पूरी करके जब आ रहा था तब चाचा-चाची बहुत अनमन थे। कहने लगे - "आवत-जात रहेव, हमका भूलेव न"।
मुझे भी अच्छा नहीं लग रहा था, मन बहुत निराश था। मैंनें कहा - "आप बिलकुल चिन्ता न करें हमेशा आता-जाता रहूँगा"।

इस तरह से कालाकाँकर मेरे लिए अपना गाँव घर जैसे रहा। ये स्थान अपने आपमें अतुलनीय है मेरे जीवन के दो वर्ष यहाँ पर बहुत अच्छे से बीते। यहाँ के वातावरण ने मेरे भीतर अन्तर्मूल्यों का निर्माण किया। रोज़ शाम को टहलने जाना, रास्ते में पन्त जी का नक्षत्र भवन फिर गाँव का दृश्य एवं गंगा का पावन तट, बाग-बगीचों की हरियाली ये सारा नज़ारा कितना अच्छा लगता। मेरे साथ प्रत्येक दिन मेरे सहपाठी भाई चौधरी कुँवर सिंह टहलने ज़रूर जाते, वो मेरा हमेशा ख़्याल रखते और मेरे सुख-दुख में साथ खड़े रहते।
आज भी गाँव में कितने अच्छे लोग हैं। आज भी मानवीय संवेदनाएँ बरकरार हैं। मैं चाहता हूँ सभी लोग एक दूसरे से प्रेम करें, मतभेद हो लेकिन मनभेद न हो। आपस में मानवता का भाव रहे, एक दूसरे के सुख-दुख में साथ रहें। ये पृथ्वी मानवीय हो जाए।

हमारे बी.एड विभाग से डॉ. विनीता सिंह, डॉ. रेखा सिंह, डॉ. हवलदार यादव, डॉ. डालचन्द आनन्द ये चारों गुरुजन बहुत अच्छे थे। एक बार आदरणीया डॉ. विनीता मैम ने मुझे बुलाया और कहा - "विमल बाहर से कुछ खाने के लिए ले आओ" और उन्होंनें सौ रुपये मुझे दिए। मैंनें बाहर देखा, जो दुकान लगाए था, वो चला गया। मैंने कहा "मैम वो तो चला गया", पैसा आगे बढ़ा दिया। तब मैम ने कहा - "अरे लिए रहो"।
उन्होंने अपने बैग से पचास रुपये और निकाले मुझे दे दिया। मैम ने कहा - "कुछ खा लेना"। उस दिन मेरे पास ख़र्च के लिए केवल बाइस रुपये बचे थे। मैंनें बाहर कुछ खाया नही, मैम के पैसे से एक सप्ताह का ख़र्च चलाया। विनीता मैम खाने के लिए बैग से निकाल कर कुछ न कुछ दे देतीं। उनकी ममत्व की भावना हमें आकर्षित करती।
कक्षा में गुरुजनों से पढ़ना हमेशा अच्छा लगता। विनीता मैम विषय के अलावा जीवनमूल्यों पर हमेशा बात करतीं। डॉ. रेखा मैम का स्वभाव बहुत हँसमुख था। बहुत अच्छे से पढ़ातीं और सदैव आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करतीं।
डॉ. आनन्द गुरुजी हमें पढ़ाते भी थे और हमारे छात्रावास के वार्डेन भी थे। गुरुजी हमेशा पूँछते कोई दिक़्क़त तो नही है। डॉ. हवलदार यादव गुरुजी बहुत ही सरल तरीके से पढ़ाते और समझाते थे। मैं इनके घर बहुत गया हूँ। साथ बैठकर बहुत देर तक बातें करते और चलते समय यही कहते "मेहनत करते रहो"।

मैंनें अपने जीवन में बहुत अभाव देखा है, लेकिन इस अभाव में मेरी सभी लोगों नें बहुत मदद की है।
कालाकाँकर में मेरा मित्र समुदाय बहुत बड़ा रहा, सबसे बातें करना, हँसना, साथ-साथ रहना ख़ूब अच्छा लगता। इसी तरह से सभी लोगों का स्नेह मुझे हरदम मिलता रहे, मैं इस ऋण को बनाएँ रखना चाहूँगा।


लेखन तिथि : 2 मई, 2021
            

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