सारी उम्र ज़ाया कर दी यूँ ही पढ़ने पढ़ाने में,
मुठ्ठीभर लम्हात हसीं थे जो गुज़रें मुस्कराने में।
खेल के मैदान में वो चंद नाम क्या ख़ूब थे,
फीका लगता हैं गुरुजी, सरजी बनकर कमाने में।
गाँव मौहल्ले में पहले जब चक्कर लगाते थे,
प्रेम भाईचारा था, अब नफ़रतें रह गई ज़माने में।
कूँचों मैदानों से वाबस्ता रही हैं दुनिया हमारी,
मोबाईल सबब हैं गलियों से गुलों को हटाने में।
वो जो ख़ुतूत बंद था गाँव का अतीत समाए,
अर्से बाद देखा सुनहरे हुरूफ़ सजे हैं फ़साने में।
माज़ी के रंगीं सफ़हा पर अमिट हैं वो नाज़नीं,
नज़रों का वो लम्स ख़ूब हैं मौसमों को सजाने में।
गुज़रा वो ख़ज़ाना फ़रोख्त कर लिया वक़्त ने,
ग़नीमत ये रही मैं दौलत अब लाया हूँ घराने में।
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