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संशय के दरवाज़े (नवगीत)

आँखें-
सपने बग़ैर
भग्न खंडहर लगतीं हैं।

समय उलूक सा
आज बोल रहा।
संशय के दरवाज़े
खोल रहा।

उम्मीदें भी
मन को-
इक ठगिनी सा ठगतीं हैं।

ज़िंदगी मानो
बीहड़ हुई है।
अलसी का ढेर
खोजें सुई है।

भयावह रातों
में कुंठाएँ
क्यों उमगतीं हैं।


लेखन तिथि : 5 दिसम्बर, 2019
            

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