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समंदर (कविता)

बड़ा हुआ मैं खेलते खेलते,
गाँव की उन पगडंडियों में।
रस्सी कूदा करता था मैं,
घूम घूम कर सारी गलियों में।

कूद जाता था यूँ ही कभी,
गाँव के छोटे से ताल में।
थोड़ा बहुत सीख लिया तैरना,
ताल के उस बहते जल में।

देखते देखते बड़ा हो गया मैं,
चला समंदर में मस्ती मचाने।
ताल में तैरने वाली वह मस्ती,
गयी समंदर में कश्ती चलाने।

सीख न सका बचपन में मैं,
तैरने के सारे गूढ़ हुनर।
यक़ीन था अपने ही दम पर,
ले सकूँगा समंदर से टक्कर।

कूद गया समंदर की धार में,
भरोसा था कि मिलेगा साहिल।
लिया लहरों ने मुझे चपेट,
हो गया मैं बड़ा ही चोटिल।

डूब रही थी कश्तियाँ सारी,
फँस गया लहरों के भंवरजाल में,
पस्त हो गई सहन शक्ति मेरी,
डूब रहा था काल के गराल में।

दिख गई तभी टिमटिमाती बत्तियाँ,
नई आशा का हुआ संचार।
आ रही थी शायद कोई कश्ती,
जीने का मिला नया आधार।

लड़ने लगा फिर लहरों से,
लेकर फिर मन में आश।
बढ़ने लगा मैं कश्ती की ओर,
दिल में जागा फिर विश्वास।

हौसलों ने ली एक नई उड़ान,
पहुँच गया मैं कश्ती के पास।
आ गई एक नई ऊर्जा मन में,
जगी मन में जीने की आश।

इन लम्हों में जान लिया मैने,
ज़िंदगी नहीं इतनी आसान।
समंदर के उन थपेड़ों में आज,
ज़िंदगी से हो गई मेरी पहचान।

नहीं है इतना सीधा और सरल,
मेहनतकश ज़िंदगी का मंज़र।
निखर जाती ज़िंदगानी हमारी,
झेल लें जो मुसीबतों के बवंडर।

ज़िंदगी तो जैसे हो एक समंदर,
मुश्किलें यूँ ही रहती आती जाती।
अगर लहरों से जूझ सकें हम,
ख़ुशियाँ वापस आ ही जाती।

ज़िंदगी में जो जुझा मुश्किलों से,
जानी मैने ज़िंदगी की हक़ीक़त।
लड़ सकूँ बुरे हालातों से अपने,
यही करता हूँ ईश्वर से मिन्नत।

कैसे भी हो जीवन के हालात,
करना होगा ख़ुद पर विश्वास।
हौसला न हो अगर मन में,
होना पड़ेगा ज़िंदगी में हताश।

कवि की बात यह मान लें आज,
रखना सदा ही मन में उद्यम।
मुश्किलों का सदा करें सामना,
ख़ुद पर करें एतबार हरदम।


लेखन तिथि : 21 अगस्त, 2021
            

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