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सारा जग मधुबन लगता है (कविता) Editior's Choice

दो गुलाब के फूल छू गए जब से होंठ अपावन मेरे
ऐसी गंध बसी है मन में सारा जग मधुबन लगता है।

रोम-रोम में खिले चमेली
साँस-साँस में महके बेला
पोर-पोर से झरे मालती
अंग-अंग जुड़े जूही का मेला
पग-पग लहरे मानसरोवर डगर-डगर छाया कदंब की
तुम जब से मिल गए उमर का खंडहर राजभवन लगता है।
दो गुलाब के फूल॥

छिन-छिन ऐसा लगे कि कोई
बिना रंग के खेले होली
यूँ मदमाए प्राण कि जैसे
नई बहू की चंदन डोली
जेठ लगे सावन मनभावन और दुपहरी साँझ बसंती
ऐसा मौसम फिरा धूल का ढेला एक रतन लगता है।
दो गुलाब के फूल॥

जाने क्या हो गया कि हरदम
बिना दिए के रहे उजाला
चमके टाट बिछावन जैसे
तारों वाला नील दुशाला
हस्तामलक हुए सुख सारे दुख के ऐसे ढहे कगारे
व्यंग्य-वचन लगता था जो कल वह अब अभिनंदन लगता है।
दो गुलाब के फूल॥

तुम्हें चूमने का गुनाह कर
ऐसा पुण्य कर गई माटी
जनम-जनम के लिए हरी
हो गई प्राण की बंजर घाटी
पाप-पुण्य की बात न छेड़ो स्वर्ग-नर्क की करो न चर्चा
याद किसी की मन में हो तो मगहर वृंदावन लगता है।
दो गुलाब के फूल॥

तुम्हें देख क्या लिया कि कोई
सूरत दिखती नहीं पराई
तुमने क्या छू दिया बन गई
महाकाव्य कोई चौपाई
कौन करे अब मठ में पूजा कौन फिराए हाथ सुमरिनी
जीना हमें भजन लगता है मरना हमें हवन लगता है।
दो गुलाब के फूल॥




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