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ऋतुएँ बदल रहीं हैं (नवगीत)

हवाओं के मुख से
लपटें निकल रहीं हैं।

किनारों से दूर नदी
सूखकर-
काँटा हुई है।
जलती धूप पत्तों के
गाल पर-
चाँटा हुई है।।

पीड़ा की हिमनदी
रह-रह पिघल रही है।

दिवस जब-
ढलने लगे तो
शाम दस्तक दे रही।
अँगड़ाईयाँ हैं
सूर्य की-
तप्त किरणें ले रहीं।।

उम्मीदें मुझको हर बार
छल रहीं हैं।

अमराईयों में
पंछियों का
बसेरा हो गया।
है आँख जब खुलती
देखा तो-
सबेरा हो गया।।

मौसम अलमस्त है
ऋतुएँ बदल रहीं हैं।


लेखन तिथि : 15 अप्रैल, 2022
            

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