हवाओं के मुख से
लपटें निकल रहीं हैं।
किनारों से दूर नदी
सूखकर-
काँटा हुई है।
जलती धूप पत्तों के
गाल पर-
चाँटा हुई है।।
पीड़ा की हिमनदी
रह-रह पिघल रही है।
दिवस जब-
ढलने लगे तो
शाम दस्तक दे रही।
अँगड़ाईयाँ हैं
सूर्य की-
तप्त किरणें ले रहीं।।
उम्मीदें मुझको हर बार
छल रहीं हैं।
अमराईयों में
पंछियों का
बसेरा हो गया।
है आँख जब खुलती
देखा तो-
सबेरा हो गया।।
मौसम अलमस्त है
ऋतुएँ बदल रहीं हैं।
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