चाह नहीं मैं लहू से अपने,
प्रकृति का शृंगार लिखूँ।
चाह नहीं मैं योद्धाओं की,
लहू युक्त तलवार लिखूँ।
चाह नहीं मैं राजनीति,
नेताओं का गुणगान लिखूँ।
चाह नहीं मैं सुंदरियों की,
सुंदरता का बखान लिखूँ।
चाह नहीं मैं प्रेम मिलन के,
जीवन का वह सार लिखूँ।
चाह नहीं मैं धन वैभव,
के लिए काव्य भण्डार लिखूँ।
चाह नहीं मैं धर्म नीति,
से परे पुष्प का हार लिखूँ।
चाह नहीं मैं सिंहासन,
के लिए नर संहार लिखूँ।
चाह मेरी जीवन में इतनी,
लिखूँ सदा मैं वही तिरंगा।
जब भी निकले मधुमय स्याही,
लिखूँ सदा मैं पावन गंगा।
चाह यही है जीवन में,
जब लिखूँ देश सम्मान लिखूँ।
बलिदानी वीरों की गाथा,
भारत देश महान लिखूँ।
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