प्रीति में संदेह कैसा?
यदि रहे संदेह, तो फिर—
प्रीति कैसी, नेह कैसा?
प्रीति में संदेह कैसा!
ज्योति पर जलते शलभ ने
धूप पर आसक्त नभ ने
मस्त पुरवाई-नटी से
नव प्रफुल्लित वन-विभव ने—
प्रश्न पूछा—‘कोई नित-नित
परिजनों से भी सशंकित
हो अगर 'तो गेह कैसा?’
प्रीति में संदेह कैसा!
नींद पर संदेह दृग का
पंख पर उड़ते विहग का
हो अगर संदेह मग पर
प्रीति-पग के नेह-डग का
तो कहा प्रिय राधिका ने
नेह-मग की साधिका ने
बूँद बिन घन-मेह कैसा?
प्रीति में संदेह कैसा!
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