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पर! कोई बात नहीं (कविता)

वेदना जगी!
हृदय में वेदना जगी।
मार पड़ी!
ग़मों की मार पड़ी।
विरान हो गया;
सारा संसार।
फिर एक बार,
बारिश के थपेड़ों की झाड़ पड़ी।
सपनें टूटे!
पतझड़ के झड़ते;
पत्तों से सपनें टूटे।
डरानें लगी!
गहन तम सी,
निशा मुझे डरानें लगी।
छा गया आँखों में,
उनके खिले चेहरे।
फिर से एक बार,
उनकी याद मुझे सताने लगी।
क्या हुआ अमंगल!
कुछ याद नहीं।
कहाँ खो गया वह पल;
पर; कोई बात नहीं!
अब तो
मेघ से घिरे नभ,
अश्रुजल करने लगे हैं।
खिले प्रसून,
सब झरने लगे हैं।
स्वप्न पराग,
भी बह चले हैं।
अतीत के उन राहों में,
सब साथ साथ चलने लगे हैं।


रचनाकार : प्रवीन 'पथिक'
लेखन तिथि : 17 जून, 2012
            

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