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नवरात्रि (कविता)

हर घर हुई आज घट की स्थापना,
करेंगे माँ दुर्गा को विराजमान।
नवरात्रि के होते पूरे नौ दिन,
अलग अलग रूपों में माँ होगी प्रतिमान।

हर ओर सज रहे पूजा के पंडाल,
बज रहे ढोल, नगाड़े और मृदंग।
सजावट की गई मंदिरों में,
बज रहे चारों ओर साज और शंख।

आज नवरात्रि के पहले ही दिन,
मन में उठ रहा ज्वलंत एक सवाल।
क्यों बढ़ रहा हर ओर वैमनस्य,
क्यों बहा रहे हम अपनों का हलाहल?

माँ अंबे तो होती नारी का ही रूप,
फिर क्यों होता रहता नारी पर अत्याचार?
नवरात्रि में करते माँ दुर्गा की अर्चना,
पर क्यों होता रहता नारी का बलात्कार?

माँ कहती आज हम से, "नारी है मेरा ही रूप",
"फिर क्यों करते रहते सिर्फ मेरी ही पूजा"?
माँ, बहन, बेटी, पत्नी, सभी दुर्गा स्वरूप,
फिर क्यों करते हम उनसे सलूक है दूजा?

नवरात्रि का पर्व वर्ष में, एक बार ही आता,
पर हर घर में हरदम, बसती माँ भवानी।
न करें अब हम, नारी जाति का अपमान,
यही तो कहती आज, दुर्गा की हर वाणी।

माँ दुर्गा आ रही, धरती हुई अभिराम,
बहन आती भाई के घर, क्यों होता परेशान?
करें माँ की अर्चना, दे पूरा मान सम्मान,
बहन को भी दें हम, उसकी सही पहचान।

मूर्ति पूजा जरूर करें हम, पर नारी को मिले सही स्थान,
ढोल, नगाड़े, मृदंग बजाएँ, बनाएँ घर में पकवान।
देवी पर चढ़ाएँ चढ़ावा ज़रूर, नारी का न करें अपमान,
ले आज यही प्रण हम, देंगे नारी को उचित मान।

तभी तो होगी, नवरात्रि की पूजा सार्थक,
माँ दुर्गा की होगी, तभी सही आराधना।
आज नवरात्रि के पहले दिन लें हम प्रण,
न करेंगे अब किसी, नारी की अवमानना।

रतन कुमार अगरवाला - गुवाहाटी (असम)


लेखन तिथि : 7 अक्टूबर, 2021
            

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