तुम कहते हो! नया साल?
पर नए साल सी बात नहीं है।
प्राकृति सौन्दर्य सुवासित से,
ये धरा सुसज्जित नही हुई।
न कुसुम कहीं पर खिले और,
ये हवा सुगंधित नही हुई।
कोयल का राग, भ्रमर गुंजन,
तरु के नूतन पात नहीं है।
है धरा ठिठुरती सर्दी से,
मानव मन एक निराशा है।
सूरज की तपिश मंद लगती,
चहुँदिशि घन धुंध कुहासा है।
रहते हैं सभी बन्द घर में,
ख़ुशनुमा अभी हालात नहीं है।
खग-विहग शांत उद्विग्न और,
है शीत सलिल में मीन दुखी।
नर्तन बिन मोर हुए व्याकुल,
कैसा नव वर्ष? न कोई सुखी।
तुम झूठा पर्व मनाते, पर
अपनी ये सौग़ात नही है।
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