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मृत्यु शैया (कविता)

मृत्यु शैया पर जब देह
पुरज़ोर संघर्ष करती है
विभीषिका से...
पसलियाँ एकजूट हो जाती
हैं श्वास की लय से लय मिलाने को
विरोध करती है नासिका कृत्रिम
श्वास के लिए,
स्वीकार्य नहीं जब सहानूभूति
व दया आँखों में
एसी देह मुस्कराती है हर पल
अपनी प्रगाढ एच्छिक शक्ति पर
जीवन की बूँदों का आस्वादन कर
चेहरे परओज लिए गर्व का,
हारती नहीं वह अंत तक
हर क्षण नवीन कलेवर में
उर्जा स्फूटित करती है स्वयं में
जिजीविषा के लिए...
ऐसी देह असाधारण होती है
नहीं होना चाहती दया का पात्र
जीना चाहती है स्वावलंबित होकर
मगर एक दिन...
देह और विभीषिका के द्वंद में
देह समर्पित कर देती है स्वयं को
मृत्यु के समक्ष...
मोक्ष माँग लेती है ईश्वर से
वह हारी नहीं है अंत तक विभीषिका से,
आत्मदृढ व संकल्पित हो गई है
यह असाधारण रूपी देह
चोला बदल कर आत्मा का
प्रवृत्त हो गई है अनंत यात्रा की ओर
सुनो आत्मजन!
व्यर्थ ही तुम विक्षोभ करते
क्रंदन करते देह से लिपट लिपट ,
इस असाधारण देह का इहलोक
में नहीं परलोक में है स्थान
क्योंकि मेहनती व जुझारू है
यह देह...
अत: पोंछ डालो इन अश्रुओं को
पकड़ने दो राह इसको
उन्मुक्त हो उस दूसरे पथ की,
अग्रसर हो चली है यह देह
आत्मा में निरूपित होकर
न वह पिता है न माँ है
न भाई न बहन न
न किसी अन्य रिश्ते
की नामवत...
एक अदम्य दीप्त ज्योत है
प्रशस्त हो चुकी है नए गंतव्य की ओर
जहाँ न गम होगा न आँसू होंगे
न मोह होगा न माया होगी
शिव की शरण होगी
शांति ही शांति होगी
एसी असाधारण देह के लिए,
सुनो आत्मजन!
याद में तुम जब तड़प उठोगे
सुंदर सा इक रूद्र
या हरसिंगार रोप देना,
जिस दिन पुष्प मुस्कुराएँगे
इनकी शाख पर
समझ लेना
आनंद ही आनंद है
इस असाधारण देह के लिए
उस लोक में।


            

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