सौ दर्द सहे इस मिट्टी ने,
सौ बार धूप में तपी यही।
सौ बार उड़ी यह दूर-दूर,
सौ बार क्रोध में नपी यही।
किंतु यह फिर भी तनी रही,
मिट्टी थी मिट्टी बनी रही।
यह ही कुम्हार की थापी से,
अगणित रूपों में गई ढल।
अग्नि की ज्वाला में बँधकर,
यह अग्नि जैसी गई जल।
यह तपकर फिर भी धनी रही,
मिट्टी थी मिट्टी बनी रही।
मिट्टी ही गुड़िया बनी कहीं,
कहीं वीरों की यह भाल तिलक।
मिट्टी की सोंधी सी सुगंध में,
दिखी प्रेम की अमर झलक।
गलकर विश्वास में सनी रही,
मिट्टी थी मिट्टी बनी रही।
मेघों का गर्जन सुना यहाँ,
वर्षा की बूँदों की थप-थप।
मिट्टी ने आँधी भी देखी,
हर बार बिखरने की धप-धप।
फिर भी हँसकर यह तनी रही,
मिट्टी थी मिट्टी बनी रही।
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