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लोग ही चुनेंगे रंग (कविता)

चुप्पी के ख़िलाफ़
किसी विशेष रंग का झंडा नहीं चाहिए

खड़े या बैठे भीड़ में कोई हाथ लहराता है
लाल या सफ़ेद
आँखें ढूँढ़ती हैं रंगों के मायने

लगातार खुलना चाहते बंद दरवाज़े
कि थरथराने लगे चुप्पी
फिर रंगों की धक्कमपेल में
अचानक ही खुले दरवाज़े
वापस बंद होने लगते हैं

बंद दरवाज़ों के पीछे साधारण नज़रें हैं
बहुत क़रीब जाएँ तो आँखें सीधी बातें कहती हैं

एक समाज ऐसा भी बने
जहाँ विरोध में खड़े लोगों का
रंग घिनौना न दिखे
विरोध का स्वर सुनने की इतनी आदत हो
कि न गोर्बाचेव, न बाल ठाकरे,
बोलने का मौक़ा ले ले

साथी, लाल रंग बिखरता है
बिखराव से डरना क्यों
हो हर रंग का झंडा लहराता

लोगों के सपने में यक़ीन रखो
लोग पहचानते हैं आस के रंग
वे जानते हैं दुखों के रंग
अंत में लोग ही चुनेंगे रंग।


रचनाकार : लाल्टू
            

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