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कृष्ण होना आसान नहीं किंतु नामुमकिन भी नहीं (लेख) Editior's Choice

ऐसा क्यों है कि बहुत सारे लोग मुझे जान नहीं पाते हैं?श्रीमद्भगवद्‌गीता में श्री कृष्ण ने कहा है।

ऐसा इसलिए है शायद हम अपनी भौतिकता में इतने रत हैं कि स्वयं से परिचित होने के लिए कभी समय ही नहीं निकाला है हमने स्वयं के लिए।

जीवन में आत्म तत्व का दर्शन बहुत साधारण सी परिभाषा है कृष्ण होने की। जैसे मक्खन परिष्कृत उपादान है दूध का उसी तरह आत्मा का विशुद्ध रूप ही कृष्ण होना है अर्थात जिस तरह दूध से दही व दही को बिलोकर, मथकर मक्खन ऊपरी सतह पर पहुँच जाता है गडमड, संघर्ष करते हुए उसी तरह जीवन प्रक्रिया में धक्के खाकर तूफ़ानी व पथरीले संघर्ष से गुज़र कर आत्मा के परिष्कृत स्वरुप में पहुँचने कि सतत प्रकिया ही कृष्ण होना है।

कृष्ण बनने के लिए गूढ़ होना अपरिहार्य नहीं है कृष्ण यानि भौतिकता और अध्यात्म के मध्य वह समतल ज़मीन का संतुलन जहाँ व्यक्ति अपने दैनिक कर्तव्य का निर्वाह कर शुद्ध आत्मदर्शन की बंशी बजा सके सुकून से।

दामोदर के विराट स्वरूप यानि उनके जीवन दर्शन का अनुसरण अथार्त परब्रहम... कृष्ण प्रत्येक देह में आत्मा का एक ओजस्वी स्वरूप है, देह में आत्मा का उस चरम स्वरुप में पहुँचना है जहाँ दुख और सुख की परम समता हो, जहाँ कुछ भी अलभ्य आकर्षित नहीं करता है सिवाय उस देह में आत्मा के ऊपर उठ जाने के उपक्रम में।

कृष्ण कर्मयोगी भी हैं सकारात्मक व सार्थक कर्तव्यों के निर्वहन स्वरुप आत्मचित्त जब प्रसन्न होता है उसका प्रभाव जो चेहरे पर उजागर होता है उसी देह का ओजस्वी होना ही कृष्णमय होना है।

जीवन संभावनाओं, महत्वकांक्षाओं, नैराश्य और विपत्तियों से भरी उतार-चढ़ाव की अनंत यात्रा है जिस पर हम सभी चले ही जा रहे हैं भटके हुए पथिक की तरह किसी अदृश्य, अप्राप्य की खोज में, नहीं जानते हैं कि वह अस्तित्वहीन, अदृश्य खोज क्या है? जिसको पाने की हमें अभीष्ट तो है और कतिपय प्रयासरत भी हैं किंतु ज्ञान के अभाववश किसी लक्ष्यहीन गंतव्य की ही ओर अग्रसर हैं।

जीवन की इस अंतहीन दिशा यात्रा को सार्थक व अर्थपूर्ण बनाने में हमें किसी ऐसे मित्र या सहयात्री की आवश्यकता होनी चाहिए जो हमें हमारे जीवन के मूलभूत व अमुल्य आयाम प्रदत्त कर एक उचित दिशा की ओर प्रवृत्त कर सके।

वास्तव में जीवन की वह खोज कृष्ण है जिसके अस्तित्व का सार है जीवन जीने की सहज शैली में ज़मीन पर खड़े हुए के साथ ज़मीन पर ही रहकर जुड़ाव, जन्म और मृत्यु से परे निरपेक्ष कर्म, लकीर का फ़क़ीर न बनकर ज़रूरत के हिसाब से जीवन जीने की महत्ता, सृजन के सौंदर्य में, आत्मा से विशुद्ध साक्षात्कार के द्वारा प्रकाश को अंगीकार करने में।

कृष्ण एक अराध्य ही नहीं स्वयं में एक विचार हैं, संस्कार हैं एवं व्यवहारिकता की कला का अनूठा संग्रह भी हैं जीवन से जुड़े विषयों के साथ तदात्मयता बिठाने में।

अंत: जहाँ सत्य है, आनंद है, न्याय है, तदात्मय है, स्व को जानने की सतत प्रक्रिया है वहाँ कृष्ण सदैव ही व्याप्त हैं।कृष्ण सर्वव्यापी हैं वह हमारे आसपास व हमारे भीतर भी अपनी गुणवत्ता, अपने जीवन-दर्शन द्वारा मौज़ूद हैं।

कृष्ण ही आनंद हैं,कृष्ण ही चेतना हैं,कृष्ण ही कर्त्तव्य हैं,कृष्ण ही मोक्ष हैं, कृष्ण ही विरतता हैं, कृष्ण ही न्यायप्रियता हैं, कृष्ण ही साहचर्य हैं। दरअसल कृष्ण हमारे व्यक्तित्व को गढ़ने वाले विलक्षण महानायक हैं जिनकी किसी व्यक्तित्व से किसी अवतार से तुलना नहीं की जा सकती है।

जहाँ आनंद है वहां परम शांति है परम आनंद को ही परम मंगल और परम कल्याण कहते हैं यही परम कल्याण की पराकाष्ठा ही कृष्णमय होना है। प्रयोगात्मकता के साथ सुलझे हुए व सुसज्जित जीवन में ही कृष्ण तत्व है।

कृष्ण के सार को जीवन में उतार लिया जाए तो कृष्ण आनंद प्रदायी अदृश्य शक्ति के रूप में सदैव हमारे आसपास ही हैं। कृष्ण कण-कण में हैं रज-रज में हैं दुनिया में कुछ भी ऐसा नहीं है जिसकी उत्पत्ति ईश्वरीय सत्ता से नहीं हुई है, इस विचार के साथ सभी चर-अचर के प्रति प्रेम उत्पन्न होना चाहिए विसंगति नहीं।

कृष्ण के जीवन दर्शन को समझा जाए तो वह निरंतर सीखने और स्वयं को मंझने के विचारों के मार्गदर्शक भी हैं।

वह जो सर्वशक्तिमान है, सर्व-भूत है, सर्वज्ञ है, सूक्ष्म से भी सूक्ष्म, विराट से भी विराट है जिसकी हम में से कुछ अपने क्रियाकलापों द्वारा, कुछ ज्ञान अर्जन कर, कुछ भक्ति द्वारा प्राप्ति की चाह रखते हैं।

किंतु कृष्ण को पाना स्वयं को सौंदर्य के प्रारूप में गढ़ना भी है जैसा कि विचारों का सौंदर्य, कल्पनाओं का सौंदर्य, ज्ञान का सौंदर्य, बौद्धिकता का सौंदर्य, आत्मसात करने का सौंदर्य, प्रकृति के नाद से उत्पन्न सौंदर्य।

कृष्ण को पाना उनके जीवन मुल्यों को अंगीकार कर कृष्ण होना ही जैसा है, आसान तो नहीं कह सकते लेकिन नामुमकिन भी नहीं है, दरकार है तो बस अपनी ज़िंदगी के कुशल सारथी बनने की, एक महारथी जो स्वयं के चरित्र का गंभीर पर्यवेक्षण कर समाज का सशक्त व उन्नत ढाँचा खड़ा करने हेतु हाँककर ले जाए समुचित समाज व देश को किसी गौरवशाली परिधी में।

कृष्ण बाहर नहीं हमारे भीतर ही हैं हमारी मुस्कराहटों में है जिसे हम अपने लिए ही संचित न कर नि:स्वार्थ दूसरों के अधरों पर सुशोभित देखकर अपने होने का अर्थ समझ सकें। कृष्ण एक तत्व है हमारी शिराओं में रला-मिला जिसके प्रवाह की प्राप्ति व उनकी जीवन शैली को विस्तार देना हमारे स्वयं पर ही निर्भर करता है।

कृष्ण की तरह राजा होने पर भी हमेशा ज़मीन से अपने पाँव टिकाए, अपनी मिट्टी से जुड़ाव, स्वामित्व नहीं सेवा की भावना जैसे कृष्ण ने सुदामा के पाँव धोए, मित्रता अमीरी ग़रीबी से परे, कर्तव्यनिष्ठा का भाव, महाभारत में कृष्ण ने जो अर्जुन को पाठ पढ़ाया। कृष्ण का इन्द्र को महत्व न देकर गोवर्धन पहाड़ की पूजा करने का आहृवान प्रकृति की संरक्षणता व संवर्धन का संदेश हमें कृष्ण होना ही सिखाता है।

कृष्ण को पाने के लिए हमें कृष्ण ही होना होगा।
कर्म जो सोया है चिरकालीन सुप्तावस्था में, उसे नींद से जगाकर उसे सर्वोपरि समझ जीवन को जमा नहीं ख़र्च करना होगा कलयुग के दस्तावेज़ में विशेष मानव की प्रविष्टि दर्ज कराने हेतु। कृष्ण को बाहर ढूँढ़ने के बजाय अपने मन को कृष्ण की तरह कुशल निर्देशक बनाना होगा अपने व समाज के स्वच्छ व सर्वांगीण विकास हेतु।

संक्षिप्त सार यह है कि कृष्ण को पाने के लिए कोई मनीषी होना या किसी विद्वता को पाना आवश्यक नहीं अपितु एक साधारण शरीर में शुद्ध चेतना का विकसित होना है। विशुद्ध चेतना से स्वत: क़दम उजाले की ओर बढ़ने लगते हैं और अंधकार पीछे छूटता चला जाता है।

दामोदर होने के लिए एक साधारण इंसान की भांति अपने दैनंदिन कर्म अपने कर्तव्य, इंसान होने का औचित्य, जीवन का उद्देश्य, पारिस्थितिकी यानि प्रकृति और पशुओं से प्रेम और आत्मा का परिष्कृत होना ही सच्चे अर्थ में कृष्णमय होना है।

कृष्ण के विराट स्वरुप की भाँति अपनी आत्मा को उस विशुद्ध रंग में रंगना थोड़ा जटिल है किंतु अभ्यास से अपने उद्देश्यों की प्राप्ति तो की ही जा सकती है।


            

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