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किरदार (कविता)

असली किरदार को कोई जानता नहीं,
नक़ली किरदार के चर्चे बड़े हैं।
सच्चे ग़रीब की कोई मानता नहीं,
झूठे अमीर के साथ खड़े हैं।
नसीब नहीं दो रोज़ की रोटी ग़रीब को,
"आज पनीर नहीं पापा" बच्चे अमीर के अड़े हैं।
इंसानों को तरसतीं इमारतें अमीरों की,
बच्चे ग़रीब के फुटपाथ पर पड़े हैं।
हैं लाख बुराइयाँ अमीर में मगर,
अच्छाई बस एक दौलत घनी है,
हैं लाख अच्छाईयाँ ग़रीब में मगर,
बुराई बस एक दौलत नहीं है।
क्या हाल होगा दुनियाँ का समदर्शी,
किताबें फुटपाथ पर, जूते शीशों में जड़े हैं।
क्या करे सच्चा ग़रीब समदर्शी,
झूठे अमीर न्यायाधीश बने हैं।
बिठाए जाते हैं मंचों पर, अमीर बड़े शौक़ से,
लोग सीरत नहीं सूरत देखते हैं।
बड़ा कठिन है आज इंसान को समझना,
अवगुण अनगिनत सही, अमीरी ख़ूबसूरत देखते हैं।
नहीं फ़र्क़ पड़ता मैं अकेला हूँ,
चेहरे बनावटी मेरे साथ नहीं हैं,
जो कल कहते थे कि बचते हैं बुराई से,
जहाँ बुराई है, वे आज वहीं हैं।
जिन्हें समझता था, समदर्शी तू ख़ुद्दार
नक़ली किरदार आज वही हैं।
बताते हैं ख़ुद को बात पर मरने वाले,
वे असली किरदार आज नहीं हैं।


लेखन तिथि : 2 मार्च, 2021
            

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