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ख़्वाहिशें (कविता)

अंतहीन होती ख़्वाहिशें,
अनकही दबी फ़रमाइशें।
काश समझता दर्द कोई,
झूठी हँसी की नुमाइशें।

कलेजे में धँसा तीर सा,
आँखों में दिखता पीर सा।
मन सोचता रहता हरदम,
जीवन क्यों संत फ़क़ीर सा।

वह रंगीन ख़्वाबों की रात,
यौवन के नाज़ुक जज़्बात।
किरका किरका बिखरे सभी,
झूठे निकले सब ख़यालात।

सपनों में रंग भरे कौन,
क्यों टूटने पर धरे मौन।
अरमान रह गए अधूरे,
कोई तो है दिल का सौन।।


रचनाकार : सीमा 'वर्णिका'
लेखन तिथि : 7 सितम्बर, 2021
            

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