आसमान की ओढ़नी ओढ़े,
धानी पहने
फ़सल घँघरिया,
राधा बन कर धरती नाची,
नाचा हँसमुख
कृषक सँवरिया।
माती थाप हवा की पड़ती,
पेड़ों की बज
रही ढुलकिया,
जी भर फाग पखेरू गाते,
ढरकी रस की
राग-गगरिया!
मैंने ऐसा दृश्य निहारा,
मेरी रही न
मुझे ख़बरिया,
खेतों के नर्तन-उत्सव में,
भूला तन-मन
गेह-डगरिया।
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