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कविता से एक अंतरंग संवाद (कविता)

मेरी अंतरंग सखी!
मैं तुम्हारे साथ सैर को जाती हूँ
जब भी,
ख़ाली तन्हाइयों में
तुम मुखर हो जाती हो।
तुम्हारे संग-साथ
मैंने तय किए हैं बीहड़ रास्ते।
हमने देखी हैं
ओस से धुली चाँदनी रातें,
धधकती आग में
झुलसते परिंदों की पाँखें।
सुनी हैं,
डर और दहशत की आवाज़ें,
खोजी हैं,
ठंड से ठिठुरती ज़िंदगियाँ
और भूख से थकी-हारी निगाहें।


रचनाकार : शैलप्रिया
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