चेहरे पर रातों के
कालिख अँधेरों की।
आँगन में उतरे हैं
धूप के पखेरू।
उम्र ढली उड़ जाते
रूप के पखेरू।।
आई याद मेड़ों पर
खट-मिट्ठे बेरों की।
मधुऋतु फ़सलों के
रंगों को चूम गई।
अमराई में हवा-
बसंती झूम गई।।
पिटारी राज़ खोलती
साँप की-सँपेरों की।
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