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जीवन की तृष्णा नहीं मिटी (कविता) Editior's Choice

उठी आज मन गरल विपाशा,
हृदय पुष्प को गला गई।
जीवन की तृष्णा नहीं मिटी,
अस्तित्व जीव का जला गई।

गंतव्य से दोनों नयन डिगे,
अधर सूख कर हुए शिथिल।
जिजीविषा का अंत हो रहा,
मिथ्या आज हो रही कुटिल।

अति इच्छा, लोभ, मोह ही तो,
हैं जीवन में यहाँ सहोदरा।
घट भरा द्वेष, ईर्ष्याओं से,
व्याकुलता से है कलश भरा।

मन रूपी तरकश में अगणित,
हैं भरे हुए तृष्णा के तीर।
हैं छूट रहे धनु से वो तीर,
किंतु न पिपासा है अधीर।

प्रश्नों पर प्रश्न चिन्ह बनते,
किंतु न क्षुधा जीवन घटती।
मन को है करती क्षीण क्षीण,
अदृश्य रूप में है बँटती।

कर देती चरित्र खोखला यह,
और अग्नि भस्म बना देती।
है कभी नहीं भर पाती यह,
जीवन को अंत बना देती।


लेखन तिथि : 30 अप्रैल, 2022
            

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