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हक़ हैं हमें भी कहने दो (कविता)

हक़ हैं हमें भी कहने दो,
बेटी हूँ हमें भी शान से जीने दो।

हम भी करेंगे ऊँचा काम
मत रोको हमें,
आगे बढ़ने दो,
बेटी हूँ हमें भी शान से जीने दो।

नारी शक्ति हूँ,
अबला नहीं
सबला बनके रहने दो,
बेटी हूँ हमें भी शान से जीने दो।

कर सकती हूँ मैं भी
हर एक काम,
घर की दीवारों में
क़ैद न रहने दो,
बेटी हूँ हमें भी शान से जीने दो।

कुछ लम्हा ही सही,
हम बेटियों को
खुल कर जीने दो,
सपनों को साकार करने दो,
बेटी हूँ हमें भी शान से जीने दो।

तकलीफ़ होती हैं हमें भी,
अब सहन हद पार हुआ,
हाथ बढ़ाओ हमें पीछे न रहने दो,
बेटी हूँ हमें भी शान से जीने दो।

गर बेटा हैं संसार
तो बेटी हैं दुनिया।ल,
न ख़ुद करो अंतर,
ज़माने को अब भेद-भाव न करने दो,
बेटी हूँ हमें भी शान से जीने दो।

तोहमतों का सफ़र कब होगा ख़त्म,
जो कहते हैं बेटियो को
चौखट पार न करने दो,
बेटी हूँ हमें भी शान से जीने दो।

यक़ीनन जाहिल शख़्स ही
करते हैं अक्सर भेद-भाव,
समझदार की शख़्सियत तो अब रहने दो,
बेटी हूँ हमें भी शान से जीने दो।

बेटी हूँ बेटियों के दर्द से वाक़िफ़ हूँ,
हम बेटियों को बे-दर्द न कहने दो,
बेटी हूँ हमें भी शान से जीने दो।

माजी, हाल, मुस्तक़बिल हैं बेटियाँ,
इन्हे सिर्फ़ नाम मात्र न रहने दो,
बेटी हूँ हमें भी शान से जीने दो।

आस-पास के वातावरण में
बेटी की महिमा गाई जाती हैं,
वही दूसरी ओर बेटी की
आवाज़ दबाई जाती हैं।
ख़ामोश मत करो हमें,
हमें भी वाचाल रहने दो,
बेटी हूँ हमें भी शान से जीने दो।

बहुत हुआ तिरस्कार
मिले अब हमें पहचान,
खुले आसमान में न सही
ज़मी पर ही हमें बने रहने दो,
बेटी हूँ हमें भी शान से जीने दो।

घर में रोई नहीं
मकान में हँसी नहीं,
यूँ घुटन में न मरने दो,
बेटी हूँ हमें भी शान से जीने दो ।

बन्दिशो में बँध कर
रही ता-उम्र बेटियाँ,
अब बेटियों को
ज़ंजीर में न बँधने दो,
बेटी हूँ हमें भी शान से जीने दो।

कुछ हम बेटियों का भी,
हक़ और कर्तव्य हैं,
अपने हक़ और कर्तव्य,
को भी अब पूरा करने दो,
बेटी हूँ हमें भी शान से जीने दो।

बेटा जाता अक्सर
एक शहर से दूसरे शहर,
करता देश-विदेश का सफ़र,
हमें भी दुनिया देखने दो,
बेटी हूँ हमें भी शान से जीने दो।

मलाल नहीं हमें समाज से,
बेटी, परी, गुड़िया, शहज़ादी,
राजकुमारी, देवी, नारी,
और नारायणीय हैं,
इसे ग़ुलाम न बनने दो,
दुर्व्यवहार का शिकार न होने दो,
बेटी हूँ हमें भी शान से जीने दो।

मान सम्मान से,
नज़र-अंदाज़ न करो हमें,
लाजवाब अंदाज़ मे रहने दो,
बेटी हूँ हमें भी शान से जीने दो।

हम ख़ुद एक ख़िताब हैं,
बंद किताब न बनने दो,
घरेलू हिंसा, असमानता,
लिंग भेद न होने दो,
बेटी हूँ हमें भी शान से जीने दो।

ज़मीं-आसमाँ, दिन- रात,
की दूरी जैसी
हो गई हैं बेटी,
फ़ासला अब सिमटने दो,
बेटी हूँ हमें भी शान से जीने दो।

जितना आसान था
उतना कठिन हो गया,
अब समझना बेटी के जज़्बातो को,
अब मन की बात करने दो,
बेटी हूँ हमें भी शान से जीने दो।

चारो ओर अँधेरा
बेटी के मुक़द्दर में,
अब उजाले की मशाल जलने दो,
बेटी हूँ हमें भी शान से जीने दो।

ज़ालिमों के ज़ुल्म पर
हम भारी पड़ जाए,
कुछ ऐसा जुनून ख़ुद में रहने दो,
बेटी हूँ हमें भी शान से जीने दो।

अब कोई बेटी मुश्किलों में न पड़े,
सारी बेटियों को एकजुट हो कर
संकल्प करने दो,
हमे बिटियाँ बन के जीने दो,
बेटी हूँ हमें भी शान से जीने दो।

अब वक़्त हैं
डट कर जीने के लिए
मत रोको हमें,
गर आ जाएँ बात अस्तित्व पर,
राक्षसों का वध करने दो,
बेटी हूँ हमें भी शान से जीने दो।

माना कि मैं "शमा" हूँ,
पर हूँ भारत देश की बेटी,
मुझे जलाओ नहीं
शिक्षा की रोशनी करने दो,
बेटी हूँ हमें भी शान से जीने दो।


रचनाकार : शमा परवीन
लेखन तिथि : 30 जनवरी, 2021
स्रोत :
पुस्तक: हक़ीक़ी इश्क़
पृष्ठ संख्या: 18
प्रकाशन: रवीना प्रकाशन (दिल्ली)
संस्करण: 2021
            

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