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गीता सार (कविता)

धर्म विरुद्ध है नीति जाकी
कोई टार सका नहीं विपदा वाकी
भूल गया तू एक ही क्षण में
किस कारण तू खड़ा है रण में
समझ यहाँ तेरा कौन सगा है
सब सोए हैं कौन जगा है
भरी सभा जब नारी विकल थी
भीष्म, द्रोण की तब कहाँ अकल थी
छीना हक़ जब कहाँ वो सयाने
अपना वही जो अपना माने
सिंह सियार के रिश्ते कैसे
देख जरा रिपु दिखते कैसे
वाण तुरीण विक्षुब्ध हुए क्यों, शोभा ये तेरे हाथों की
बिना यामिनी तो अँधेरा, दुर्गति देखो उन रातों की
धर्म युद्ध नहीं अकारण धर्म विरुद्ध है उनकी नीति
बिना युद्ध अधर्म न‌‌‌ हारे निभा अर्जुन जग की रीती।


रचनाकार : गोकुल कोठारी
लेखन तिथि : 22 अप्रैल, 2022
            

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