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दूर कटा कवि मैं जनता का (कविता) Editior's Choice

दूर कटा कवि
मैं जनता का,
कच-कच करता
कचर रहा हूँ अपनी माटी;
मिट-मिट कर
मैं सीख रहा हूँ
गतिपल जीने की परिपाटी
कानूनी करतब से मारा
जितना जीता उतना हारा
न्याय-नेह सब समय खा गया
भीतर बाहर धुआँ छा गया
धन भी पैदा नहीं कर सका
लूट खसोट जहाँ होती है
मेरी ताब वहाँ खोटी है
मिली कचहरी इज़्ज़त थोपी
पहना थोथा उतरी टोपी
लिए हृदय में कविता थाती
मैं ताने हूँ अपनी छाती।




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