दिल में दर्द भरा है इतना,
कोई सहे भी तो सहे कितना।
गैर तो ख़ैर गैर ही थे,
अपनों ने भी कहाँ समझा अपना।
मैं तो अपनों ही से हूँ हारा,
शायद क़िस्मत का खेल है यह सारा।
जब भी देखता हूँ मैं पीठ पर घावों के निशान,
सब पर लिखा मिलता है अपनों के ही नाम।
जब अपनों से इस क़दर दर्द मिलता है,
दिल बेचारा ख़ून के आँसू रोता है।
किसको दोष दूँ अपनों की बेवफ़ाई को,
या अपनी ही क़िस्मत की रुसवाई को।
अब तो बस दर्द अपने चुपचाप पी लेता हूँ,
कहीं छुप के अकेले में थोड़ी देर रो लेता हूँ।
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