रोज़ उगते सूर्य के संग-साथ
दिनचर्याओं में उलझ जाते हैं
हम सब
और एक ही लीक पर चलते
होते हैं अहर्निश।
गतिशील समय
ठहरा हुआ लगता है
जब बार-बार किसी उलझन में
जिया जाए।
ऊसर खेतों में
नमी की खोज व्यर्थ है।
सब जानते हुए भी
किसी दलदल में फँस जाने का भय
घेरता है बार-बार।
इस चक्रव्यूह की परिक्रमा
पूरी नहीं हो पाती
और न मुक्ति का द्वार
दिख पाता है कभी।
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