देशभक्ति / सुविचार / प्रेम / प्रेरक / माँ / स्त्री / जीवन

चक्रव्यूह (कविता)

रोज़ उगते सूर्य के संग-साथ
दिनचर्याओं में उलझ जाते हैं
हम सब
और एक ही लीक पर चलते
होते हैं अहर्निश।
गतिशील समय
ठहरा हुआ लगता है
जब बार-बार किसी उलझन में
जिया जाए।

ऊसर खेतों में
नमी की खोज व्यर्थ है।
सब जानते हुए भी
किसी दलदल में फँस जाने का भय
घेरता है बार-बार।
इस चक्रव्यूह की परिक्रमा
पूरी नहीं हो पाती
और न मुक्ति का द्वार
दिख पाता है कभी।


रचनाकार : शैलप्रिया
यह पृष्ठ 2 बार देखा गया है

अगली रचना

तुम और तुम्हारी याद


पीछे रचना नहीं है
कुछ संबंधित रचनाएँ

इनकी रचनाएँ पढ़िए

            

रचनाएँ खोजें

रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें