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चाय की चुस्की (कविता)

चाय की चुस्कियाँ काली ज़रूर होती है,
पर बात काले और सफ़ेद के फ़र्क़ की नही जनाब,
चाय की चुस्कियाँ होती बड़ी ही मस्त अलमस्त है।
चाय में जो मस्ती, वह दूध में कहाँ जनाब?

हम चाय की चुस्कियाँ ही नही लेते,
इसकी भाप में भुला से देते कई ग़म।
दोस्तों के साथ चाय पर करते गुफ़्तगू,
तो ख़ुशनुमा लगता सारा ये चमन।

कभी जब होता हूँ अकेला मैं,
ख़ुद से ख़ुद ही करता हूँ बातें।
बनाता ख़ुद से एक प्याली चाय,
बस चाय की चुस्कियाँ और ख़ुद से मुलाक़ातें।

लगते सुहाने वे अकेलेपन के पल,
जब आशनाईं होती अपनेआप से।
न होता आस पास कही भी कोई,
बस चाय के संग पल बीतते जाते।

सुख हो या फिर हो कोई भी दुःख,
नहीं छोड़ती कभी चाय हमारा संग।
होली हो, दिवाली हो या कोई और पर्व,
चाय में घुल जाते ख़ुशियों के रंग।

समोसा खाएँ, कचौरी खाएँ,
चाय की चुस्कियाँ से बनता स्वाद।
चाय की चुस्कियाँ संग न रहे,
तो सब मानों लगते बड़े ही बेस्वाद।

प्रेमी जब याद करता प्रेयसी के नग़मे,
चाय की चुस्कियाँ लगाती चार चाँद।
नग़मों के छंद हो जाते सुरीले,
मिलता प्रेमिका के संग सा आनंद।

याद करता हूँ कभी भाई बहन का साथ,
लेते थे सब जब चाय की चुस्कियाँ।
चाय में डूबो कर खाते थे रोटियाँ,
उसी में मिल जाती थी ढेरों ख़ुशियाँ।

अब भी लेता हूँ चाय की चुस्कियाँ,
पर न रही वह बचपन की मस्तियाँ।
प्लेट में डाल चाय पीने की कहाँ गई वो हरकतें,
जाने कहाँ गई वो मटरगस्तियाँ?

फिर भी लेता आज भी मैं चाय की चुस्कियाँ,
याद करता आज भी बचपन की वो शैतानियाँ।
बदल से गए कुछ ज़िंदगी के मायने,
पर साथ रह गई चाय की वह चुस्कियाँ।


लेखन तिथि : 29 जुलाई, 2021
            

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