तलवे घिस गए आने जानें में,
उम्र गुज़र गई जिसे कमानें में।
ज़िन्दगी भर जो कमाई इज़्ज़त,
अपनें ही लगे उसे गँवाने में।
पाल-पोस कर बड़ा किया,
जिसको वजूद दिया ज़मानें में।
क्या किया है मेरे लिए,
एक पल ना लगा उसे सुनानें में।
शाम-ए-हयात ढल गई,
औलाद को कुछ बनानें में।
अरमानों का गला घोट दिया,
जिसनें दो वक़्त की रोटी कमानें में।
मूँह का निवाला भी उसे खिलाया,
पर टुकड़ा दे ना सका वो खानें में।
जवानी बुलाती रही ज़िन्दगी मगर,
बुढ़ापा लगा है मौत बुलानें में।
ज़िन्दगी एक पहेली है 'गाज़ी'
नाकाम इसे हर कोई सुलझानें में।
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