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बोलती दीवार (कविता) Editior's Choice

यह रहा मेरा १० बाई १० का कमरा।
कमरे के सीलन भरी दीवारों पर
उभरी है छोटी-छोटी आकृतियाँ,
मैं नित देखती हूँ आकृतियों को,
आज भी देख रही हूँ।

मेरे ठीक सामने की दीवार पर
उभरी है आकृति एक दोपाये की,
कुछ ही दूरी पर सुलग रही है लकड़ियाँ।
एक चौपाया तेज़ी से भाग रहा है,
और
उसके पीछे एक भाला,
मानो शुन्य में तना हुआ हो।
पल भर में मैं दीवार पर टाँग देती हूँ,
प्रागैतिहासिक काल का कैलेण्डर ।

अब मैं नज़र टिकाती हूँ
मेरी दाहिनी ओर की दीवार पर।
एक आकृति उभरी है,
बांग्ला भाषा के 'भ' अक्षर का,
चंद बन्दूकों की आकृतियाँ भी,
इधर-उधर भागते लोग दीख रहे हैं।
क्या हो रहा है वहाँ?
शायद भाषा की लड़ाई!
याद आया...
ऐसी ही लड़ाई छीड़ी थी बांग्लादेश में।
और एक गोल घेरा लगा देती हूँ,
दीवार पर लगी कैलेण्डर की
फ़रवरी माह के २१ वीं तिथि पर।

अब मैं देखती हूँ,
अपनी बाईं ओर की दीवार को।

उभरी है एक आकृति दिल की,
कोई लम्बा सा कद वाला शख़्स,
मानो...
पकड़ना चाह रहा हो दिल को।
कौन हो सकता है यह?
कद से राज कपूर तो नहीं लगते!
मजनूँ भी नहीं...
राधा का श्याम तो बिल्कुल नहीं,
तब ज़रूर अमिताभ होंगे!
बेशक...
दीवार में अमिताभ ही तो थे।
मगर....
उनके पास माँ क्यों नहीं है?
शायद इस वक़्त...
माँ उनके दिल में है,
माँ सबके दिल में रहती है।
हमारे देश के दिल में भी,
दिल्ली, हमारा देश का दिल।
सोचती हूँ....
दिल्ली में माँ कैसी होगी?
दिखने लगती है आँखों के सामने,
हज़ारों माँ रूपी दामिनियाँ,
और फिर...
एक घेरा फिर लग जाता है,
दिसम्बर माह की १६ वीं तिथि पर।

मैं ग़ुस्से से तमतमा उठती हूँ,
मेरे सामने रखी हुई पानी का गिलास उठाकर
दीवार पर पटकती हूँ।
पानी के छीटें सीलन भरी दीवार पर पड़ कर,
कोई और कहानी रच लेती
इससे पहले मैं...
१० बाई १० के कमरे से बाहर निकल आती हूँ।।


लेखन तिथि : 2021
            

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