शामों की सुर्ख़ फ़ज़ाओं में तुझसे मुख़ातिब हुआ कभी,
माहताब ने भी तिरे दूधिया अक्स को उतरने दिया कभी।
शबे-पहर तन्हाई ने अधपकी नींद से जगाया कभी,
रातों में तिरी सूरत ने बियाबाँ को भी चमकने दिया कभी।
गुज़रती हर सर्द शब ने मुझे ना सोने दिया कभी,
टिमटिमाते तारों की लौ में ख़ुद को जलने दिया कभी।
नफ़स-ए-तिमिर में तू बन-संवर कर आती थी कभी,
बंजर दिल में तिरे बंसती ख़्वाब को बसने दिया कभी।
फ़क़त तिरा ही तसब्बुर रहा मेरे अन्तर्मन में कभी,
टपकते टेसूओं को खुरदरे गालों पर टहलने दिया कभी।
बेमौल रहा है अतीत के पन्नों में छिपा वो माज़ी कभी,
ख़ुदा ने मिरी पेशानी को तिरी नेमत से सजने दिया कभी।
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