महानगर में हमनें
घरौंदा बनाया।
पर हमें गाँव खेड़ा
बहुत रास आया।।
ताल, अमराई,
मेड़ रही है।
पुरवा निगोड़ी
छेड़ रही है।।
कभी न किसी पे पड़े
दुर्दिन का साया।
कोलाहल, भीड़ है,
दंगे हैं।
तनिक सी बात
में अड़ंगे हैं।।
जाड़े में धूप की
ठिठुरती है काया।
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