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बदलता दौर (कविता)

सो गया हूँ मोबाईल में वेब सीरीज देखकर,
जगा दे सुब्ह, वो मंज़िल की पुकार कहाँ है।

वर्तमान तो पढ़ रहा हैं स्माईल-ओ-यूट्यूब से,
पर स्कूल में जो गुरु सिखाए, वो ज्ञान कहाँ हैं।

संगीत में रीमिक्स का शोर भी बड़ा ऊँचा हैं,
पर वो पूर्णिमा का चाँद वाली मिठास कहाँ हैं।

रोज अख़बार बलात्कार की ख़बर से रो पड़ता हैं,
कुछ भेड़िये इंसानी भेष में हैं, पर इंसान कहाँ हैं।

ऐ ज़िंदगी, तिरे रंगमंच ने बना दिया कठपुतली,
ख़ुदा तूने ख़ूब नचाया पर देख ले, थकान कहाँ हैं।

मिरी नज़्मों पर तारीफ़ों के पुल बाँधा करते थे,
पर जो यारों के दिल से निकलें, वो दाद कहाँ हैं।

ज़ेहन-ओ-तसब्बुर में यक चेहरा रोज़ कहता हैं,
ज़िंदगी तुम हो 'कर्मवीर', पर वो किरदार कहाँ हैं।


लेखन तिथि : 18 अप्रैल, 2020
            

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