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आओ मर्दो, नामर्द बनो (कविता) Editior's Choice

आओ मर्दो, नामर्द बनो!

मर्दों ने काम बिगाड़ा है
मर्दों को गया पछाड़ा है
झगड़े-फ़साद की जड़ सारे
जड़ से ही गया उखाड़ा है
मर्दों की तूती बंद हुई
औरत का बजा नगाड़ा है
गर्मी छोड़ो, अब सर्द बनो।

गुलछर्रे ख़ूब उड़ाए हैं
रस्से भी ख़ूब तुड़ाए हैं
चूँ-चपड़ चलेगी तनिक नहीं
सर सब के गए मुड़ाए हैं
उल्टी गंगा की धारा है
क्यों तिल का ताड़ बनाए है
तुम दवा नहीं, हमदर्द बनो।

औरत ने काम सम्हाला है
सब कुछ देखा है, भाला है
मुँह खोलो तो जय-जय बोलो
वरना तिहाड़ का ताला है
ताली फटकारो झख मारो
बाक़ी ठन-ठन गोपाला है
गर्दिश में हो तो गर्द बनो।

पौरुष पर फिरता पानी है
पौरुष कोरी नादानी है
पौरुष के गुण गाना छोड़ो
पौरुष बस एक कहानी है
पौरुषविहीन के पौ बारा
पौरुष की मरती नानी है
फ़ाइल छोड़ो, अब फ़र्द बनो।

चौकड़ी भूल, चौका देखो
चूल्हा फूँको, मौक़ा देखो
चलती चक्की के पाटों में
पिसती जीवन-नौका देखो
घर में ही लुटिया डूबी है
चुटिया में ही धोखा देखो
तुम कलाँ नहीं बस ख़ुर्द बनो।


            

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